अनुवाद - कला | Anuvad - Kala

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ११ ) हैं। परन्तु संस्कृत में 'गुणेरात्मसदशी कन्यामुद्वहे” ऐसे । यहाँ गुण को हेतुन मानकर उसमें ततीया हुई है। हिन्दी का अनुरोध करके 'गुण' को अधिकरण मानकर 'गुणेष्वात्मसहृ॒शीं कन्यामुद्॒हेः” ऐसा नहीं कह सकते | परन्तु जब हम इव' का प्रयोग करते हैं, तब हम संस्कृत में भी “गुण” को अधिकरण मानकर उसमें सप्तमी का प्रयोग करते हैं। जेसे--'समुद्र इब गाम्मीयें स्पैयें च हिम- वानिव ( रामायण ) | यहाँ हमारा वाग्व्यवहार हिन्दी के साथ एक हो जाता है। हिन्दी में कोई व्यक्ति किसी ओर व्यक्ति से किसी विषय में विशेषता रखता है, ऐसा कहने का ढंग है। परन्तु संस्कृत में “किसी कारण से' विशेषता रखता है ऐसा कहते हैं। जेसे--स वीणावादनेन मामतिशेते ( वह वीणा के बजाने में मुझ से बढ़ गया है )। इसी प्रकार--सा श्रियमपि रूपेणातिक्रामति ( वह सुन्दरता में लक्ष्मी से भी बढ़-चढ़कर है )। भ्रोजस्वितया न परिहीयते शच्याः ( तेज में वह इन्द्राणी से कम नहीं ) | जहाँ हिन्दी में यह कहा जाता है कि महाराज दशरथ के कौसल्या से राम पैदा हुश्रा, वहाँ संस्कृत में इस भाव को प्रगट करने के लिए, अपना ही ढंग है। जेसे:--श्री दशरथत्कोसल्यायां रामो जातः ( कौसल्या में तालव्य “श? का प्रयोग अ्रशुद्ध है ) । अहध्दुःखो धर्मात्मा सवंभतप्रियंवदः । मयि जातो दशरथात्कथमुन्छेन बतयेत्‌ ॥ ( रामायण ) । स्मरण रहे कि पत्नी को सन्तानोत्नत्ति की क्रिया में सदा ही अधिकरण माना जाता है। इसी बात को कहने का एक और भी ढंग है, यथा-- “दशरथेन कोसल्यायां रामो जनित३ |? यहाँ जन्‌ का शिच्सद्दित प्रयोग है। अब धातु सकमक हो गई है | इस प्रयोग में भी पत्नी ( कौसल्या ) अ्रधि- करण कारक ही है। (ओर 'दशरथ' अनुक्त कर्ता है। उसमें ततीया हुई है | ) जहाँ जनन क्रिया ( उच्न्न होता है, हुआ,होगा ) शब्द से न भी कही गई हो, पर गम्यमान हो-वहाँ भी पत्नीकी अधिकरणता बनी रहती है। जेसे--सुदक्षिणायां तनय॑ ययाचे ( रघुबंश ) यहाँ सुदक्षिणायां जनिष्यमाणम!ः ऐसा अथ है। हिन्दी में जहाँ २ 'के लिये! शब्दों का प्रयोग करते हैं वहाँ २ सब जगह संस्कृत में चतुर्थी का प्रयोग नहीं हो सकता । “अप्युपहासस्य समयोज्यम ( क्या यह समय उपद्वास करने के छिये है ! ) पुनः “प्राणेभ्योअपि प्रिया सीता




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