सद्धर्म पुण्डरीक | Saddharm Pundreek

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Sadhmarpundrik by डॉ. राम मोहन दस - Dr. Ram Mohan Das

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जगदीश काश्यप - Jagdish Kashyap

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डॉ. राम मोहन दस - Dr. Ram Mohan Das

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वैद्यनाथ पाण्डेय - Vaidyanath Pandey

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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0 २३ ॥ सम हो सके । प्रस्तुत ग्रन्थ की भाषा-शैली वर्णनात्मक, उपदेशात्मक एवं दृष्टान्त- प्रधान हैं । उपक्ा समन बल अ्र्प्रकाशन पर ही हे । अत , इसकी शैली प्रभु- सम्मित एवं छान्‍्तासस्मित ने होदार सुहत्सग्सित है । जिस प्रकार कोई व्यवित प्रवसे मित्र थे हिलनिस्तन वे प्रेरित होफर उसे अनेकविध वथा-कहानियो के द्वारा आयनो बात समजाता हूँ, उगके ऊपर दताव नहीं णालता, उसी प्रकार प्रस्तुत ग्रन्थ भी दर्शन के दुल्ह तत्यो को दृष्दन्त-फायाओं का आश्रय लेकर वबर्ठ रोचक एवं सरल ढंग से पाठकों के हृदय तक पहुँचा देता हें। यहां कथन के प्रकार पर विशेष आग्रह एवं श्ास्था ने रतकर कथन के विपय को सुगम एवं हृदयगम वनाने पर अधिक जोर दिया गया है । इस बन्य का प्रवात लक्ष्य है आकर्षक एवं उपदेशपूर्ण कथाओ्रो के माध्यम से पाठकों फे चित्त को पापात्मिका प्रवृत्तियों से हटाकर पुण्यात्मिका प्रवृत्ति की ओर ले जाना। अत , यह अ्नुरजन के साथ-साथ जिक्षण का कार्य भी करता हे। कुछ विद्वानों ने इसकी विश्तारवबहुल शैली पर आपत्ति की है। उनका कथन है कि इससे विपय के ग्रहण करने में बाधा पडती है, क्योकि पाठक छब्दो के भँवर में ऐसा फेस जाता है कि विचारतन्तु उसके हाथ से छुट जाते हूँ ।'* यह विचार सर्वथा सही नही है। प्रस्तुत ग्रन्थ वुद्धवचनों का सम्रह है। ये वचन स्वय शाक्यम॒नि के द्वारा असख्य श्रोताओं को वृद्धधर्म मे दीक्षित करने के लिए मौखिक कहे गये है । उपदेश की जैली ग्रन्थ की शैली से भिन्न होती है । उपदेश को रोचक बनाकर श्रोतातरों के घ्यान को अपनी ओर केन्द्रित रखने के लिए आवश्यक है कि ववता एक ही वात को विभिन्न प्रकार से कई वार कहे । पुनरुवित का आराश्चय लेने से विपय के किसी प्रथम के छूट जाने के भय की सम्भावना भी कम हो जाती है। श्रोताओं का ध्यान विषय की ओर है या नही, यह जानने के लिए उनको पुन -पुन सम्बोधित करते रहना भी वक्‍ता के लिए आवश्यक होता हे । यह विशेषता आज भी हमे भक्तिपरक भाषणों में मिलती है । ववता श्रोतृसमूह को आनन्दव्भोर करके उसमे तनन्‍्मयता उत्पन्न करने के लिए इस गली का गाश्रय लेता है । “1 (को 211 ए086 झषा65 2्ग्ते एथागें>०5 छ०्पाँति 96 शा 77076 #ल्शणारपिं ए 169 जटए2 70: 5एप7 ०0पा 0 घ्पढा [लाएप बात शा इछचटा) एड7006शापए 11910 (1० 7०7(९०१४८७४ ० पा९ शायर 8पलिल्त गि०ग्ा ता वाह एटाएकशाए 18 एटाए ट्क्राबटपलापइपाठट ० 76 जीणंढ 52007. 7 व8 9 एथयांथं>6 एशए एण एठातेड जा जाली) (16 |+टकवप6० 1 इपगरारटपे गाते पोल 1वैंदब 18 9ीला वाठसशाल्व गा (16 [6064 ० छ०-ठ5 ?-शा्राट्याड जिफका रण िताब्ाय विशञॉट्ादांपार, एएे हैं है पु० ३०० ॥ (ख) आचार्य नरेन्द्रदेव भी इस मत का समथन करते हैं * साहित्य की दृष्टि से यह एक उच्च कोटि का भ्रन्‍्थ है, यद्रपिं इसकी शैली आज के लोगो को नहीं पसन्द आयगी | इसमें अतिशयोक्ति है; एक ही बात वार-बार दुहराई गई है ।-बौद्धधमंदशन, ४० १४२ |




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