वैज्ञानिक विकास की भारतीय परम्परा | Vaigyanik Vikas Ki Bharatiy Parampara

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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वैदिक कालीन प्रेरणाएँ १ इस युक्त में किसान के हलादि उपकरणों का वर्णन हैं-- शुन बाहाः शुन नरः शुर्न कृपतु लाइलम । शुन वरचआा वध्यन्तां शुनमष्टामुदिक्षय ॥४॥ सह शुन नः फाला विकृपन्तु भूमि शुन कीनाशा अभियस्तु वाहेंः | शुन पर्जन्यों मघुना परयोभिः शुनासीरा शुनमस्मासु घत्तम्‌॥८॥ हमारें वाह ( बैल ) और मनुध्य प्रसन्नतापूर्वक कार्य करें, हमारी क्यारियों में प्रसन्नतापूर्वक हल चल्णवें, हमारी वरत्राएं ( शशियां, चमड़े या रत्सी की ) ठीक॑ से बँधी रहें, और हमारे अष्टा ( चाबुक, कोड़े, हॉकनेवाले ) ठीक से कार्य करें । हल के फाल भूमि को अच्छी तरह खोदें अर हमारे कीनाश ( इल्वाहे » बैल्यों के साथ ठीक मे चले | पर्जन्य ( मेघ ) हमारे लिए मधु और दूध के साथ सुखदायक हों | दे शुना- सीर ! हमें सब ऐंद्वर्य प्राप्त हो | एन मन्त्रों से हल और लेती के सभी उपकरणों के संक्रेत मिलते हैं। हल का प्रथम आविष्कार भारत की उर्वरा भूमि में हुआ । इल के खींचने के लिए. बैलों का प्रयोग करना, इस देश ने प्रथम बार प्रचल्ति किया | हल में छोदहे कै फाल लगाना और उनकी सहायता से क्यारियाँ बनाना, यहीं आरम्भ हुआ । हल के बैलों को हाँकने के लिए अश्ञा जर्थात्‌ कोढड़े या चाबुकों की यहां व्यवस्था हुईं | ह्लों में बेल बरत्रा द्वारा बॉँघे जाने छगे | अष्टा का उल्हेख ऋग्वेद में अन्यत्र भी हुआ है ।” एक मन्त्र में गौओं के लिए (याते अष्टा गोंओपशा55४णे पशुसाधनी) और दूसरे में पशुमात्र के लिए | वरत्रा का उपयोग कुएँ से पानी खींचने में भी होता था, और बाछटियाँ इससे बॉधी जाती थीं- » निगहावान कृणोतन सं वगर्चा द्यातन। सिश्ञामहा अवतमुद्रिणं व्य सुपेकमनुपक्षितम्‌ ॥ ऋण १० 1१०१॥५ आहाव उस बालछटी या ट्य को कहते है, जिसमें कुएं के निकट पशुओं को पानी पिछाया जाता है| इसमें वरत्रा अर्थात्‌ उठाने या खींचने की रस्सियाँ दृदता से बाँधी जाती हैँ | इस बरत्रा से आहाब को बॉधकर अवत अथांत्‌ कुएँ से पानी खॉचकर निकाला जाता है|” इस मन्त्र कै पहले ही एक दूसरे मन्त्र में हल्‍ू में जोतने के लिए बैलों के कन्धों पर रक्खे हुए जुए ( युग, ४०1८८ ) का हुछ्लेख है| अंग्रेजी का ॥०1:८ शब्द वैदिक (४०) कऋ० १०1११७। ७ । कृपन्नित फाछ आहदितं क्ृणोति यनज्नध्यानमप बृछक्ते चरित्र १ | (४१) ऋ ० ६॥५३॥९; ६[५८।२ (४२) ऋ० १०॥१०१।५ | आहांव ऋ० १|३४।८-त्रय आहावाः (ये आहाव घट के समान हैं ) । (४३) ऋर० 1०॥१०१|४




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