धम्मा कहानुओगो [भाग 1] | Dhamma Kahanuogo [Bhag 1]

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Dhamma Kahanuogo [Bhag 1]  by मुनि कन्हैयालाल - Muni Kanhaiya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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२२० ६--९--७.-+--++-+-+-+--$--+$+-+-७--+--७--9--७--+--+--+--+--$+--+--+-+-+--७--+--0--$-७--+६--७--$-$-+-+--७--+--७--+-$--$-+-+--$-+-+--+--+-+--३-+--७--७--+-+--९--+--+--*--+-+--७--७+-७--+--+-+--७--+--+--७--७--२--+-+--+-+७- ३०-३--१--$--३०-९ महावीरे चउब्बिहे देवे पण्णवेति, त॑ जहा--१ भवणवासी, २ वाणमंतरें, ३ जोतिसिए, ४ वेमाणिए। (७) ज्ष्णं समणे भगवं महावीरे एगं महूं सागर उम्मीवीयी सहस्सकऋलियं भुयाहि तिण्णं सुविणे पासित्ता णं पडिबुद्धें, तण्णं समणेणं मगवया महावीरेणं अणादीए अणवदग्गे दीहमद्धे चाउरंते संसारकंतारे तिण्णें (८) जप्णं सम्णे भगवं महावीरे एगं महूं दिणयरं तेयसा जलंतं सुधिर्ण पासित्ता ण॑ पडिबुद्धें, तण्णं समणस्स भगवओ महा- बीरस्स अणंते अणत्तरे निव्वाघाएं निरावरणे कसिणे पडिपुण्णे फेवल-वर-नाण-दंसणे समुप्पन्ते । (६) जण्णं समणे भगवं महावीरे एगं महू हरिवेरलिय- यब्णानेणं निगम्रगेणं अंतेण माणुसुत्तरं पठ्वयं सब्बओ समंता आवे- देय परिवेडियं सुविणे पासित्ता ण॑ पडिबुद्धे, तण्णं समणस्स भग- पथ महावीरत्स ओराला फ्रित्ति-वण्ण-सहृ-सिलोया सदेवमणुया- सुरे सोए परितुबंति--इति खलु सम्णे भगवं महावीरे, इति खलु समणे नगय॑ महावीरे । (१०) जण्णं समणे भगवं महावीरे मंदरे पव्वए मंदरचू लिपाए उर्वार सीहासणवरगयं अध्पाणं सुविणे पासित्ता ण॑ पडिवुद्धे, तष्णं रामणे भगय महावोरे सदेवमणयासुराए परिसाएं मज्ञगए केवलोी घम्मं आधपेति पण्णवेति पर्येनि दंभेति विदंसे तिउवर्दसेति । सुधिग-फर्से-- ३०४, दत्पोीं या पुरिसे वा सुधिणंते एगं महू हयपंति वा गयपंति वा सरपलि था कित्नरपंति या किउुरिसपंति वा महों रगपंति वा गंधव्व- परक्ति या बसनयति या पाप्तमाणे पासति, ब्र्‌ हमाणें व हति, दु ठमिति इश्याग मन्नत्व, तर्सगामेव बुम्सति, तेणेंब भवरगहणेणं सिज्मति- बीद-सस्य टबवामं अंत फरेतति | दुाधीं था पूदि। था सुद्रिगत एगं सह दार्मिणि पाईणपरडि कद चुका मुझ हद वासमान गे पामति, संवेस्लेमार्णं संवेल्लद गवि्दामिाल जाग महल, सतेकानासव चुब्यात, तगव धधा:/ बुत वी जा 4७जाउपप1 सखाण अंत फरेति । दूल ता वो पुरष दाह दमई सुद मह एज पाईमादियायर्त इज 5 वेब दृट्ठ पापा थे दवा छिर्मागे रद, छिन्‍्वेमिति दर » ईन है ७. मे जई के) धर्मेकधानुयोग--महावीर चरित्र : सूत्र ३०४ श्रमण भ्रगवान्‌ ने १--भवनवासी २--वाणव्यंतर ३--ज्योतिष्क ४--वैमानिक इन चार प्रकार के देवों को प्रतिवोधित किया । (७) श्रमण भगवान्‌ महावीर ने स्वप्त में जो हजारों तरंगों और कल्लोलों से व्याप्त एक विशाल महासागर को अपने हाथों से तेरकर पार किया हुआ देखा और जागे, उससे श्रमण भगवान्‌ महावीर ने अनादि, अनन्त, दीघे मार्ग वाले चतुगंति रूप संसार कांतार भवाटत्री को पार किया । (८) श्रमण भगवान्‌ महावीर तेज से चमचमाते एक महान्‌ सूर्य को स्वप्न में देखकर जागे, उससे श्रमण भगवान्‌ महावीर को अनन्त, अनुत्तर, निराबाध, निरावरण, पूर्ण, प्रतिपूर्ण ऐसे श्रेष्ठ केवलज्ञान केवलदर्शन उत्पन्न हुए । (६) भ्रमण भगवान्‌ महावीर एक विशाल मानुषोत्तर पर्वत को नीलवेडूयंमणि के रंग जैसी अपनी अंतड़ियों द्वारा चारों ओर से आवेष्टित परिवेष्टित किया हुआ देखा और देखकर स्वप्न से जागे, उतसे श्रमण भगवान्‌ महावीर की उदार कीर्ति, स्तुति सम्मान और यश देव, मनुष्य और असुरलोक में परिव्याप्त हुआ कि “यह श्रमण भगवन्त महावीर हैं ।! (१०) श्रमण भगवान्‌ महावीर ने अपने को स्वप्न में मंदर मिरु) पर्वत की चूलिका के ऊपर सिंहासन पर बैठा देखा और देखकर जागे, उससे श्रमणः भगवान्‌ महावीर देव मनुष्य और असुर युक्त परिपद में केवली प्रज्ञप्त धर्म का सामान्य कथन,. विशेष कथन, प्रकूपण दर्शन, निदर्शन उपदेश करते हैं । स्वप्न फल-- ३०५. कोई भी स्त्री अथवा पुरुष स्वप्न के अन्त में एक बड़ी अश्वपंक्ति, गजपंक्ति, मनुष्यपंक्ति, किन्नरपंक्ति, किंपुरुषपंक्ति महोरगपंक्त, गंधर्वपंक्ति अयवा वृषभपंक्ति को देखो और उसके ऊपर चढ़े और उस पर स्वयं चढ़ा है ऐसा अपने को माने तथा इस प्रकार देखकर यदि तत्क्षण जागे तो वह उसी भव में सिद्ध होता है--यावत्‌-- सर्व दुःखों का अन्त करता भी स्त्री या पुरुष यदि स्वप्न के अन्त में समुद्र की दाना ठारा से बड़ा हुआ और पूर्व तथा पश्चिम तरफ लम्बा एफ बड़ा दामण देखे और उसे लपेटे तथा स्वयं ने उसे लपेठा है ऐसा क्वय का माने तथा इस प्रकार देखकर कोई शीघ्र जागता द वा वह उसी भव में सिद्ध होता है--वावतु--सब दुःखों का भन्‍त करता है । स्वप्न के अन्त में लोक के दोनों छार्सो तर पूर्व व पश्नचम लम्बा ए% बड़ा रख्सा




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