रेत का वृन्दावन | Ret Ka Vrindawan

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Ret Ka Vrindawan by आशापूर्णा देवी - Ashapoorna Devi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ठीक-ठाक कर लिया, लेकिन मुझे बताया तक नही ?” गौतम ने मुस्कराते हुए कहा, “इसमें बताने की व्या बात है ? फीस तो लगेगी नहीं! निवेदिता ने पति से कहा, 'तव उसे रहने दो । आखिर वह मर्द है । लडका है, जिंदगी में जाने कितने मौके आएंगे | लेकिन मैं जाऊंगी ही” मैं यानी हम दोनों । बेटे की आपत्ति सुनकर सत्यशरण के मन में उम्मोद बंधी थी कि जाना स्थग्रित करने का यह एक ज़वर्देस्त कारण मिल गया । लेकिन निवेदिता का संकल्प सुनकर अवाक्‌ रह गए। उन्होंने पूछा, 'वह रह जाए ! खाएगा क्‍या ? 'फटिक रहेगा । जो कर सकेगा, करेगा। दोनों जन खा लिया करेंगे । मैंने तो सोचा था कि चारों जन चलेंगे । लेकिन जब यह संभव नही है, तो और किया भी क्या जाए ? उस छोकरे फटिक की किस्मत में ही नहीं है” आखिर सत्यद्वरण ने निरुषाय होकर अपने को नियति के हाथों सौंप दिया | कई दिनों बाद काफी लंबे-चौड़े माल-असवाव और एक अदद पति को लेकर निवेदिता पुरी आ पहुंची । हालांकि पति विचारे को काफी डरा-धमकाकर लाई थी कि वह असुविधा और अव्यवस्था का स्वाद पाने के लिए ही जा रही है, लेकिन असल में व्यवस्था और सुविधा के आगे 'अ! बिठाने का मौका ही नही दिया उन्होंने । यह भी उनकी एक किस्म की सनक थी । रेत का वृन्दावन (0 २५




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