अष्टाध्यायी - भाष्य - प्रथमावृत्ति | Ashtadhyayi - Bhashya - Prathamavritti

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Ashtadhyayi - Bhashya - Prathamavritti by प्रज्ञादेवी व्याकरणाचार्य - Pragyadevi Vyakaranacharya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सम्पादकीय पाठकों की सेवा में अष्टाध्यायी-भाष्य क्रा तृतीय भाग उपस्थित करते हुए महान्‌ हपे हो रद्दा है । स्वर्गीय पूज्य गुरुवये श्री पं> ब्रह्मदत्त जी जिज्ञासु ने इस महान कार्य को अपने जीवन के अन्तिम वर्षा में आरम्भ किया था और इंसकी पूणता के छिए कृतसंकल्प थे, दैवयोग से यंह उनके जीवन काल में पूर्ण नद्दो सका। न केबल मुद्रण ही अपूर्ण रहा, अपितु अष्टाध्यायी-भाष्य के अन्विम तीन अध्यायों का भाष्य भी वे न छिख सके। हमारे लिए यह कार्य क्तिना क्लिष्ट और परिश्रमसाध्य था, यह इस विषय के विज्ञ पाठक ही जान सकते हैं। षष्ठ सप्तम अष्टम अध्यायों की व्याख्या छिखकर ग्रन्थ को पएृर्ण करना अत्यावश्यक था। अन्यथा ग्रन्थ के अधूरे रह जाने से अष्टाध्यायी के पठन-पाठन की सुगमता के लिए जिस उद्देश्य से पृज्य आचायबर ने यह्‌ महान कार्य आरम्भ किया था, वह पूर्ण न होता, अधूरा ग्रन्थ पठन-पाठन के छिए उपयोगी न होता । आचार्यवर को भावना के अनुसार इस महान कार्य को पूर्ण करने का भार उनके शिष्यों पर आ गया था। ऐसे समय में श्री ग्ज्ञादेवी व्यांकरणाचार्या ने इस अन्ध को पूण करने का भार अपने ऊपर लेकर समस्त शिष्यों को उक्त चिन्ता से मुक्त कर दिया। श्री श्ज्ञादेबीजी का इस ग्रन्थ की रचना में आरम्म से ही पूर्ण सहयोग रहा था, अतः बे आचायेवर की भावना और शैछी से पूर्णतया विज्ञ थीं। इसलिए उनके द्वारा इस कार्य की पूर्ति द्वोने से अन्थ में एकरूपता भी विद्यप्तान रही हे। रचनाशेढी की समानता इतनी पृण है कि यदि इस भाग. पर उनका नाम न दिया जाता तो यह कहना भी कठिन होतां कि इस भाग की रचना अन्य व्यक्ति ने की है। इस महान्‌ कार्य की पूर्ति के द्वारा जहाँ श्री. प्रज्नादेवीजी अपने गुरुचरण के ऋण से उऋणा हुई, वहाँ अष्टाध्यायी के पठनपाठन में प्रवृत्त छात्रों वा अध्यापकों की भी वे अभिनन्द्‌नीय। बनीं ।




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