षट्खण्डागम | Shatkhandagam

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Shatkhandagam  by हीरालाल जैन - Heeralal Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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धर घंट्खेंडागमकी अ्रस्तावना १ भह्दाकर्मप्रकृतिपाहुडके चौबीस अलुयोगद्वारेंमेंसे प्रथम दो अर्थात्‌ इति जोर बेदना, बेदनाखंडकें अन्तर्गत रचे गये हैं । फ़िर अगले स्परी, कर्म, प्रकृति और वंधनके चार मेदोंमेंसे बंध'और बंघनीय वगणाखडके अन्तगत है | वंधविधान महाबंधका विषय है, तथा बंधक झुद्ावंध खंड सन्निद्षित है | इस स्पष्ट उछेखसे हमारी पूर्व बतछाई हुई खेड-व्यवस्थाकी पृणतः पुष्टि हो जाती है, और वेदनाखंडके भीतर चौबीसों अनुयोगद्वारॉको मानने तथा ब्गणालंडको उपलब्ध धवलछाकी ग्रतियोंक्रे भौतर नहीं माननेवाले मतका अच्छी तरह निरसन हो जाता हैं । २ उक्त छह अनुयोगद्वारोंसे शेष अठारह अनुयोगद्वार्येकी ग्रन्यस्वनाका नाम संतकम्म ( सत्कर्म ) है, और इसी सत्कर्मके गंभीर विषयक स्पष्ट करनेके लिए उसके थोडे थोड़े अबतरण लेकर उनके विषमपदोंका अ प्रस्तुत प्रयमें पचिकारूपसे समझाया गया है । अब प्रश्न यह उपस्थित होता है कि देष अठारह अनुयोगद्वारोंसे वर्णन करनेवाढा यह सत्कर्म अन्य कौनसा है ? इसके लिए सत्कर्मपचिकाका आगेका अवतरण देखिए, जे। इस प्रकार है- त॑ जहा | तन्न ताव जीवटव्वस्स पोर्गछठच्वमवरूंबिय पज्ञायेसु परिणमणाविद्दाणं उच्दु-जावद॒ब्बं दुविहं, संसारिजीवों मुक्करजीचों चेदि | तत्य मिच्ठतासंजमकसायजोगेहि परिणद्संसारिजीबों जीव-भव- खेत्त-पोग्गल-विवाइसरूबकम्मपोग्गले बधियूण पच्छा तेहवितो पुच्चुत्त-छव्विदफलसरूवपज्ञायमणेयमैयमिएण संसरदो जीवो पर्रिणमदि त्ति। एदेसिं पज्ञायाणं परिणमणण पोग्गलणिवंधण होदि। पुणो मुक्फ़जीवस्स एुच- विध-णिबंधर्ण णत्म्रि, किंतु सत्थाणेण पज्ञायंचर गच्छदि । पुणो-- / जस्स'वा द्व्वसुस सद्दावो दव्वंतरपर्डिवद्धो इ॒दि। एद्स्सत्थो-एल्थ जीवद्ब्वरस सहावो णाणद्ंसणाणि। घुणो दुविहजीवाण णाणसद्दावविवक्खिदु- जीवेहिंतो बद्रित्त-जीवपोग्गछादि-सब्बदुब्बाणं परिच्छेदुणसहावेण पजज्नायतरममणणिवंधण होदि -। एवं देसणं पि वक्तवर्व । - यहां पंजिकाकार कहते हैं कि वह्ंपर अर्थात्‌ उनके आधारभूत प्रन्थंके अठारद अधि- कारेमिंसे प्रथमानुयोगद्वार निबंधनकी प्ररूपणा सुगम है । विशेष केवछ इतना है कि उस निर्वंघन- का निक्षेप छद्द प्रकारसे बतलाया गया है। उनमें तृतीय अर्थात्‌ द्वब्यनिक्षेपके स्वरूपकी प्ररू- पणा्ें भाचार्य इस प्रकार कइते हैं । जिसका खुलासा यह है. कि यहां पर पुह्लद्वन्यंके अव्े- बनसे जीवद्रव्यके प्योयेर्-परिणमन विधानका कथन किया जाता है। जीवद्रन्य दो प्रकारका है, संसतारी व मुक्त | इनमें मिथ्यात्व, असेयम, कषाय और योगसे परिणत जीव ससारी दै । बह जीवविपाकी, भवविपाकी, क्षेत्रतिषकी और पुद्ृछविपाकी कर्मपुद्वछकी बांघकर- अनन्तर उनके- निमित्तसे पूर्वोक्त छह प्रकारके फलरूप अनेक ग्रकारकी पर्यायोमि संसरण करता है, अथौत्‌ फिरता है । इन पर्यायोंका परिणमन पुठ्रछके निमित्तते होता है | पुनः मुक्तजीवके इस ग्रकारका परिणमन नहीं पाया जाता है | किन्तु वह अपने स्वमात्से ही पर्यायान्तरको ग्रात्त होता है | ऐसी स्थितिंध *जत्स/वा दव्वस्प सहावो दब्बतंरपडिबद्धों इंदि ? अर्थात्‌ * जिस ऊचष्यका स्वभाव द्रव्यान्तरसे प्रतिबद्ध है ? इति । _ के




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