पिपासा | Pipasa

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Pipasa by अतीन वंद्योपाध्याय - Atin Vandhyopadhyay

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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“-पुम चिंता मे करो चमन ।--कह कैर निर्मला ने - फिर चमन - का गाल दवा दिया। । आह, निर्मला के अंग॑-मंग में कितनी मादक सुगंध है ! कितनी कोशिश कर उसने निर्मला के लिये यह महल जैसा मकान बनाया है; फिर निर्मलछा जो . क्या चाहती है, घह समझ नहीं पाता । उसने देखा है, जितनी वार स्वेच्छा से उसने निर्मछा को बांहो में लेना चाहा है, घह अंपने चेहरे पर अनोखी मुस्कान विखेर कर इतनी आकर्षक बन उठी है. कि चमन को उंसे कष्ट पहुँचाने की इच्छा नहीं हुई है.। किसी-किसी दिन चंमन अपने पर ति्॑त्रण न रख पांता है। पहुं आगे बढ़ता है; पर रुक जाता है । उसे ऐसा लगता है मानो उसके सामने आगे का एक गोला दहक रहा है | उसके वाद सब कुछ निर्मला की इच्छा पर निर्भरें करता है । चमव की इच्छा की कोई कीमत नहीं । इच्छा न रहने पर निर्मला सिर्फ उसका गाल दवा देती है | उसके वाद चंमन सुबोध बालक की तरह कोने घाले कमरे में जाकर सो जाता है। या: जब घह यहाँ रहता है, कभी-कभार गाड़ी लेकर अकेला ही दूर गाँव चला जाता है | वहाँ उसके आदमी हैं। वहाँ उसका घर है| पहाँ शराब के नशे में बह गरीब देहाती यवतियों की जवानी में निर्मला के दुःख ढूंढ़ता है, निरमंछा को. पहचानने की 'कोशिश करता है । इसलिये इस समय चमन ने निर्मला को परेशान नहीं किया । एक भोले-भाले बच्चे की तरह कॉरिडोर पार कर वह अपने सोने घाले कमरे में चला गया । निर्मला ने दरवाजा वंद कर लिया । . हाँ, पीछे का दरवाजा खुला ही रहा । पहाँ इच्छा होने पर वंह चुपचाप अकेली वेठी रह सकती है। दरवाजा और खिड्ंकियाँ वंद होने के कारण सर्दी नहीं लग रही है । एयर कांडीदन होने के कारण कमरे गरम हैं । और पता नहीं क्‍यों अभी सफेद चाँदनी देखने के लिये, पहाड़-की चोटियों पर जो सफेद चाँदनी खेल रही है, उसे देखने के लिये निर्मला का मन व्याकुल हो रहा है । ह ह यहाँ बैठने पंर वह गेस्ट हाऊस देख सकेगी । सुरेश तो शायद उसी कमरे में टिका है। उसके सिरहाने के पास घालछो खिड़की खुली हुई है कया ! यानी अभी तक सुरेश साहब सोये नहीं हैं । खिड़की से निकल कर एक रहस्यमयी रोशनी बालकोनी के मीचे वाले फौवारे पर पढ़ रही थी। रात के दस बजने पर सिर गेट की रोशनी जलती रहती है। दायीं ओर की रेलिंग की रोझती नीले रंग की है, चह भी जलती रहती है । और सभी रोघनियाँ बुका दे जाती हैं 1 और पूरी इमारत उस समय पहाड़ पर खत पड़ की भाँति चुप खड़ी रहती है । आभास तक नहीं मिलता कि इतनी बड़ी इमारत मे काइ रहता हू । पिपासा २४५




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