भक्त वैजयन्ति तृतीया पुष्प | Bhakt Vaijayantika (vol Iii)

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Bhakt Vaijayantika (vol Iii) by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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व््क ह. इन न * दकुन्ल.. «का नर ( २५ )- “4१1९४ स्वप्त आया। उसमें भयवान ने आज्ञा करी। मेरा भक्त कृष्ण दास देहली को गया हे। उसने जछेबी का भोग लगाया तुम्दारे भांग की शीघ्रता से में जलेवी उठा लाया कुछ खाई कुछ रह गई। उसके टुकड़े हँँ। पण्डों की चिन्ता दूर हो गई। जब क्ृष्णदास वापस मथुरा पहुँचा तब सब चातें स्पष्ट हो गई । जनता ने इसका - सन्मान किया। यह बल्लभाचाय का शिष्य था। यह मथुरा का रहने वाला था | एकदा यह दिल्ली गया। इसने एक वेश्या को नृत्य करते देखी। इसन उससे कहा अरी! तू मथुरा को चलेगी। वहां मेरा भगवान परम रसिक है। तू उनको रिकावेगी तो मनमाना पदार्थ उनसे तेरे को मिल्तेगा। उसने स्वीकार किया | फिर उसने मथुरेश, श्रीकृष्ण के सामने नृत्य गान किया। यह ऐसा नृत्य करती थी जिसमें स्वयं और श्रोता मुग्ध' हो जाते थे। आयु पूर्ण होने पर वह भगवान के विम्नह में लीन हो गई। देखने घाले विस्मित हो गये। कहने हैँ इसने कुए में गिर कर प्राण त्याग किया | एकदा इसके यहां सरदासजों पहुँच गये। इसने उनका अभिनन्दन किया। पश्चानू आगमन का हेतु उनसे पूछा। वे प्रसन्नता से वोले--मेर वनाये पद द्वारा जितना प्रेम प्रभु का मेरे पर है। उन्हीं को तुम गाते हैँ। फिर मेरे से अधिक प्रेम उनका तुम्हारे पर केसा। जिससे तुम अत्यन्त श्रेमी श्री कृष्णजी के दो वह पद मेरे को सुनाओ। इसने कहा अच्छी बात सुनाउगा। सर ठहर गये। इसने अनशन करके श्री कृष्ण मन्त्र का स्मरण किया। रात्रि में भक्त भयहारों ने एक पद बनाकर उसके बिस्तरों पर डाल दिया | इसने उठते ही अनुपम काव्य को देखा उनकी ऋपा का लवलेश माना । उसको याद कर के गाथा । सर ने कहा तात ! तेरे पर नटवर की पूर्ण कृपा कै यह स्वयं ८2,




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