वेदमाता | Vedmata (rigveda Bhugool)

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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३ । का गुण होने पर भी, उनका प्रचार अधिक सीमावद्ध है; और इस जमाने मे चह क्िंतावी भाषा का पद त्यांग चुकी है। सस्कृत अति निकट होने पर भी अ्रति विकट है! बह पिजड़े के भीतर वसनेवालि चिडिया की तरह कैद रहती है। और साधारण जन उससे श्नमिन्न हैँ। यदि ऋषियों के विचारों को इ'दुदेश में प्रचार करना है. तो और सो भी येक ही भाषा के द्वारा तो; हिन्दी के अतिरिक्त इस शभिप्राय की पूर्ण फरने में अन्य भाषायें असमर्थ सी दीखती है । यह मानी हुई बात है; ऋग्वेद समस्त मानव जाति का पेटक धन है. और बिना भेद भाव के उसके विचारों को प्राप्त करने की सबकी सुविधा मिलनी चाहिये। यदि यह बिदित हो ज्ञाय कि ऋग्वेदिक ज्ञान की कामना जागृत हो उठी है। ऐसा करने में भी कोई कठिनता न होगी । इस समय तो ऋग्वेद को लोग भूल जैसे गये हू । यहां, यह प्रकट कर देना आवश्यक दे कि ऋग्वेदिक शब्द, माहवरे और तरज प्रामों की प्रचलित हिी मे अब मि विद्यमान है। उदाहरण के लिये कद नमूने यहाँ उद्धृत किये जाते है--आा, को; जल्पया। का डुमंत, मन्यु, गणेश, पियारु, छुणारु, जवार, दृशचद्यु। तूजी) लक्ष्मा, चंद्रा भेगु राबव, अच्छा जानति, आयन्‌ वे, रे; अरे, आरि सीद सादनं (बेटों बैटी जाब), चारु चछु (चारों श्राप है बूष्टि नाव बृष्टि वनि, यक्षमा, जनिमा, भानने (आना जाना) योनिमा/नव यो नर्वात ( ६६ का फेर )। इससे सारित है कि ऋगेद्क युग मे ऋग्वेदिक भाषा ग्राम निवासियों की बोल- चात़ की भाषा थी।




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