द्वादशदर्शनसंग्रह: | Dwadash Darshan Sangrah (bis Aryashatak)

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Dwadash Darshan Sangrah (bis Aryashatak) by स्वामी काशिकानन्द - Swami Kashikanand

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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शिवसझूहप श्रुति-स्मृति-पुराणोत्य-तानाददांन-दशिती: | ताः सर्वा छोकमड्भल्या बन्दे ग्रुरुपरम्परा:॥ नास्तिक्यास्तिक्य-मेदेउपि सत्यान्वेषण-दी क्षिता: । स्वंदद्ंनशोयंण्या. वन्‍्दे.. गुरुपरम्परा: ॥ पूज्य स्वामी थ्री श्री काशिकावन्द महाराज के इस ग्रत्य का छोकापंण फरने का अवसर पाकर मैं एक विशेष आनन्द का अनुभव कर रहा हूँ। इसके दो कारण हैं। पहला यह है, कि थोड़े ही समय पूर्व जब मैं स्वामीजी से मिला और गज्भा की अस्खलित अमृतधारा के समान उनका धारा- प्रवाह संस्कृत प्रवचन सुना, तब स्वामीजी के संस्कृत भाषा पर कूलंकप प्रभुत्व तथा उनकी सर्वपधोन शाश्र-अ्रतिभा की प्रथम झलक से ही मैं बहुत प्रमावित हुआ। दूसरा कारण यह है, कि स्वामीजी अपने पूर्वाश्रम में इसी विश्वविद्याछय के अन्तेवासों थे भर यही से उन्होंने वेदान्त शा का प्रयम पाठ पढ़ा है! यहीं से वे वेदान्ताचायं हुए । भौर तो भीर, यहाँ से निकलने के बाद उन्होंने संन्यास आश्रम स्वीकार कर लिया और संग्रति वे देश के उन सन्त महात्माओं में से एक हैं, जो वतंमान वैज्ञानिक भौतिक- बाद को चकाचौध से अभिभूत, दिग्श्नान्त एवं पथञश्नष्ट समाज को हमारी चिरंतन आध्यात्मिक प्रज्ञा के स्थिर एवं सोम्य भाछोक के सहारे सम्मार्य पर छाने के उदात्त रूद्षय से भारत वर्ष के कोने-कोने में अपने-अपने चुने हुए छेत्रों में भाधुनिक प्रवारतन्त्र से दूर रहकर सात्विक समाज-सेवा कर रहे हैं । कहने का तात्पय॑ यह है कि स्वामी काशिकानन्दजी महाराज सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय के उस विश्ञाल परिवार के एक मान्य सदस्य हैं, जो समग्र भारतवर्ष मे फेल़ा हुआ है। किसी भी विश्वविद्यालय को गरिमा ऐसे महनीय व्यक्तितों पर हो निर्मर हुआ करता है जो विश्वविद्यालय को चार दिवारो से निकलने के बाद अपने श्रेष्ठ कार्यों से सामाजिक प्रतिष्ठा प्राप्त करते हैं ओर अपनी प्रतिष्ठा के साथ अपने विश्वविद्यालय बी कोति बड़ाते हूँ। ऐसे व्यक्तियों के प्रति विश्वविद्यालय




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