राजतरंगिणी | Rajatarangini
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
50 MB
कुल पष्ठ :
560
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)रे प्रथमस्तरड्भई । १७
त॑ वारयितुमाहृता भ्रृत्या नासनन््गृहे यदा। शिक्षानमझुमझ्लीरा सा तदा«्वातरत्खयम्र ॥२४७॥
एकहस्त्वतावेगस्॒स्तश्ीर्पाशुकान्तया | तया पाणिसरोजेन घावित्वा सोब्थ ताडितः ॥२४८॥
भोज्यमुत्युज्य यातस्य फणिख्रीस्पशतस्ततः | सौवर्णी पाणिओुद्राड़ें.. तुरगस्योदपद्यत ॥२४९॥
तस्मिन्काले नरो राजा चारेस्तां चारुठोचनाम् | श्रुत्ला द्विजवधूं तस्थौ प्रागेवाडुरितस्मरः ॥२५०॥
तस्य घावन्तमुन्मत्तमन्तःकरणवारणम् | बलान्नियमितुं नासीदपवादभयाडुशः ॥२५१॥
तस्मिचुदृवत्तरागाभिविज्ञवें. भूपतेः पुनः | उबाह हयबूत्तान्तोी दृप्तवातानुकारिताम ॥२५२॥
चक्रे पयस्तमर्यादः सरलाहुलिशोभिना | स काश्वनकराईन शशाझेनेव वारिषिः ॥२५१॥
प्रीडानिगडनिमुक्तो दूतैराकृतशंसिभिः । ताम्ुपच्छन्दयन्सोथथ... सुन्दरीमुदवेजयत् ॥२५४॥
सवोपायैरसाध्यां. च.- विश्रस्तत्पतिरप्यसौ | तेनायाच्यत लुब्धेन रागान्धानां कुतल्रपा ॥२५७॥
अथ निर्भत्सनां तस्मादपि श्राप्तवताउसकृत् | हठेन हतु तां राज्ञा समादिश्यन्त सेनिकाः ॥२५६॥
तैग्हाग्रे कृतास्कन्दो निर्गत्यान्येन वर्मा | त्राणार्थी नागभवनं सजानिः प्राविशदृद्विजः ॥२७७॥
ताभ्यामभ्येत्य बृत्तान्ते ततस्तस्मिन्रिवेदिते | क्रोधान्धः सरसस्तस्मादुज्जगाम फरणीश्चर। ॥२५८॥
उद्वजज्जिह्मजीमूतजनितध्वान्तसंततिः | स घोराशनिवर्षण. ददाह सपुरं जपम् ॥२५९॥
दुः्धग्राण्यजड्भविगलद्सास क्ल्लेहवाहिनी | मयूरचन्द्रकाइेब.. वितस्ता समपद्चत ॥२६०॥
शरणाय ग्रविष्टानां भयात्रक्रधरान्तिकम् । मुहूर्तान्निरद््यन्त सहस्राणि शरीरिणाम् ॥२६१॥ -
मधुकैटभयोमेंदः प्रागुवोरियव चक्रिणम् । दु्घानां प्राणिनां तत्तत्दा सर्वाज्जमस्प्रशत् ॥२६२॥
-॥ २७६ ॥ उसे हटानेको मकानमें कोई नौकर उपस्थित नहीं था। इस कारण नूपुरोंका झनकार करती हुईं बह
स्वयं उसे हटानेके लिये अद्टालिकासे नीचे उतरी ॥ २४७॥ तनपरसे गिरता हुआ उत्तरीय बख्र एक हाथसे
सेंभालकर उस नागकन्याने जल्दीसे दौड़कर उस धोड़ेको दूसरे हाथसे मारा |२४८॥ इससे धान्य खाना
छोड़कर भागते हुए उस अश्वकी पीठपर नाग-कन्याके हाथका स्पर्श होते ही सुवर्णमणय हस्त-चिह् उभर आया
॥ २४५, ॥ उन्हीं दिनों वहॉँके राजा नरने भी अपने गुप्तचरों द्वारा उस सुनयनी ह्विंजभायांके सौन्दय्यकी प्रशंसा
सुनी थी। इससे उस राजाके हृदयमे कामका उदय हो चुका था ॥ २५० ॥ किन्तु छोकापवाद-जनित भयरूपी
अंकुश निर्भेय भावसे भागते हुए उस राजाके अन्तःकरणरूपी मत्तगजराजपर अपना अधिकार जमानेमें अस-
मर्थ था ॥ २५१ ॥| तभी उस राजाके हृदयमें धधकती हुईं कामाम्रिको दूनी करनके लिये वह अश्ववृत्तान्त वायुके
जेसा सहायक वन गया ॥ २५२ ॥ उन सुन्दर अंगुलियोंसे घोड़ेकी पीठपर सुशोमित उस स्वर्णमय हस्त चिहने
चन्द्रोदयसे क्षुब्ध समुद्रके समान राजाकों मय्योदासे बाहर कर दिया॥ २०३॥ तदनुसार छज्ञारूपी जंजीर
तोड़कर वह राजा इंगितज्ञ दूतोंके द्वारा उस नाग-कन्याको अपनी ओर आक्ृष्ट करनके लिये अनेकशः प्रयत्न
करता हुआ उसे सताने छगा ॥ २५४॥ इन सभी उपायों द्वारा उसकी श्राप्तिकों असंभव समझकर उस
राजाने छज्जाको तिलाझ्नकि दे दी और उसके पतिके सम्मुख अपनी इच्छा अकट की। क्योंकि कामान्धोंको
कहीं छज्जा होती हे १ || २५५ || इसपर ब्राह्मणन उसे बुरी तरह फटकार दिया। इस अकार उसके हारा अनेकश-
तिरस्कृत होकर जा बल्ात् ग्राप्त कर॒नकों इच्छासे अपनी सेना द्वारा ,उसका घर चारों ओरसे घेर लिया
॥२०६ ॥ राजाकी सेना द्वारा अपना घर घिरा देखकर वह ब्राह्मण किसी रास्ते निकलकर अपनी रक्षाकी
इच्छासे नागराजके पास गया ॥ २५७ ।॥| उस सपत्नीक न्राह्मणको आते देख ओर उसके मुखसे सव बृत्तान्त सुना
तो क्रुद्ध होकर नागराज सुश्रवा सरोवरसे बाहर निकछा और मेघ-गर्जनके समान फुफकारते हुए उसने ओलेके
बड़े-बड़े पत्थर बरसाकर उस राजाके समेत सारा नगर तहस-नहस कर दिया॥ २५८ || २५० ॥| उसकी विषा-
प्रिसे जले हुए प्राणियोंके शरीरसे निकले रक्त, मज्जा, बसा तथा माँसादि बहाती हुई बितस्ता नदी मोरपंखके
समान रंगीन दिखाई देने छगी | २६० ॥ उस समय अपने श्राणोंकी रक्षाके लिये भगवान् चक्रधरके मन्दिरमें
छिंपे हुए हजारों मनुष्य उसके भीतर ही क्षण भरमें जल मरे ॥ २६१॥ सृष्टिके आरम्भमें जेसे भगवान् विष्णुकी
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