प्रकृति सौन्दर्य | Prakriti Saundarya

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मेधाव्रत कविरत्न - Medhavrat Kaviratn

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श्रुतबन्धु शास्त्री - Srutbandhu Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रथमो5ड्: १३ राजा--(अंगुल्या दशयन) सखे ! पश्य पश्य--- 'जितषडसद्रीणां सुन्द्रीणां द्रीणां पुरत इद् मुनीनां बद्धपद्मासनानाम्‌ । नियमितकरणानां ध्यायतां देवमन्तः किमपि किमपि पुण्य सण्डल राजतीदम ॥ २५ ॥ चन्द्रवर्ण:--- (किखिंद्‌ विमानावनतिं रूपयन) देव साम्प्रतमावां पर्वत- नितम्बस्थलीमुपयुपरि गच्छाव:, तदनुभूयतां परमसुखातिशयः । तथाहि-- स्थले स्थले5मूस्स्थलपद्मपडःक्तयो, लसन्तद्य रू खच्छजलछ पदे पदे । क्षण क्षण निमेलशीतलो 5निरः सुगन्धवीचीरुचिरान्तरान्तरा ॥ १६॥ से राजाः--( अंगुलीसे दिखाता हुआ ) मित्र ! देखो इधर सुन्दर गुफाओंके प्राह्न- णमें कामक्रोध आदि छ रिपुओंको जीतनेवाले पवित्र जितेन्द्रिय मुनिमण्डल पद्मासन लगा कर अंतःकरणमें ब्रह्मका ध्यान करते हुए किसी अकथनीय कान्तिको धारण कर रहे हैं ॥ १५॥ चन्द्रवणेः--( कुछ विमान नीचे उतारता हुओ ) राजन्‌! इस समय हम लोग पर्व॑तराज के ऊँचे ऊँचे शिखरों के मध्यभाग में से जा रहे हैं, तो खूब आनन्द रूटिए । स्थान स्थानमें गुलाबोंकी पंक्तियाँ, और पग पग पर निर्मल झरनें अतिशय सोंदये बढ़ा रहे हैं ॥ १६ ॥




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