नित्यकर्म- पुजाप्रकाश | Nityakram Poojaprakash
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
13 MB
कुल पष्ठ :
387
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
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निमित्त अर्पित किया तो शुभ कार्यका पुण्य हमे अयध्य प्रा होगा।
पर साथ ही तेईस घटेका जो समय हमने अवैध अर्थात अशास्त्रीय
( निपिस्ध ) भोग-विलासमें तथा उन भोग्य पदा्धेकि साथन संचद्र्म
लगाया तो उसका पाय भी अवश्य भोगना परटेगा। उसन्लिये
जीवनका प्रत्येक क्षण भगवदाराधनके रूपमे परिणत हो जाय --डसक्की
आवश्यकता हे, जिससे मनुष्य अपने जीवनकालमें 'भगवत्मनिकटना
प्राप्त कर सके और पूर्णरूपसे ऋल्याणका 'भागी बने। इसीलिये
वेद-शास्त्रोमे प्रातःकाल जागरणसे लेकर रात्रि-शयनतक तथा
जन्मसे लेकर मृत्यु-पर्यन्त सम्पूर्ण क्रिया-कलापोंका विवेचन बिघि-
निषेधके रूपमें हुआ है, जो मनुष्यके कर्तव्याक्तर्तव्य और धर्माधर्मका
निर्णय करता है।
वैदिक, सनातन, धर्मशास्त्रसम्मत स्वधर्मानुष्ठान ही सर्वेश्वर
सर्वशक्तिमान् भगवानूकी महती सपर्या अर्थात् उनकी पूजा है। जो
मानवक्को श्रेय ( कल्याण ) प्रदान करती है। गीतामें भगवानने स्वयं
कहा हे--स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धि विन्दति मानव: 1!
इसलिये वेदादि समस्त शास्त्रोंमें नित्य और नैमित्तिक कर्मोको
मानवके लिये परम धर्म और परम कर्तव्य कहा है। प्रत्येक मनुख्यपर
तीन प्रकारके ऋण होते हैं--देव-ऋण, पितृ-ऋण और मनुष्य
(ऋषि ) ऋण। नित्यकर्म करनेसे मनुष्य तीनों प्रकारके ऋणोंसे
मुक्त हो जाता है---
'यत्कृत्वानृण्यमाप्नोति दैवात् पैन््याच्य मानुषात्।'
ञ्यॉः व्यक्ति श्रद्धा-भक्तिसे जीवनपर्यन्त प्रतिदिन यथाधिकार
ज्जान, संध्या, गायत्री-जप, देवपूजन, बलिवैश्वदेव, स्वाध्याय आदि
नित्यकर्म करता है, उसकी जुर्द्धि आत्मनिष्ठ हो जाती है। आत्मनिष्ठ
बुद्धि हो जानेपर शनै:-शनै: भनुष्यके बुन्द्चिकी भ्रान्ति, जड़ता,
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