जयशंकर प्रसाद | Jaishankar Prasad

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ११ ) की कि थक ३ लोकपीटक संवपंत्रादी को साहित्य-शिरोमणि करार देने लंगे है... ये लोग अपने को साहित्य छौर जीवन का समन्वयकारी समभते है किन्तु इन्हे यह पता नहीं कि साहित्य में जीवन केवल कुछ सैद्धान्तिक नुस्खों और कुछ चुने-चुनाए वाक्यांशों को नही कहते उसकी और भी गहरी सत्ता है। न इन लोगो को यही माठम दे. कि साहित्य के भीतर प्रगतिशील जीवन की खष्टि कैसे की जाय । राजनीतिक श्रगतिशीलता का काम नुरखो से चल सकता है पर साहित्यिक प्रगतिशीलता जीवन को गहराई में बिना प्रवेश किए. नहीं आती । फल यह होता है कि राजनीतिक सिद्धान्तवादी अपने नपे-तुले लुस्खे न देख कर प्रीढ जीवनमय साहित्य का निमाण॒ करने वाले साहित्यिको के श्रति नाक भोह सिकोड़ लेते है और इस प्रकार साहित्य से जीवन के संनिवेश की समस्या को गहरी गलतफहसियो मे डुबो देते हैं । यहि. मुमे क्षमा किया जाय तो में कहूँगा कि पुरानी में श्री रामनरेश त्रिपाठी और ठाकुर श्रीनाथ सिह तथा नयो मे बहुत अंशो तक स० ही० चात्स्यायन आदि इसो श्रेणी के साहित्यिक और समीक्षक हैं । कला और सादित्य से प्रगतिशील निमाण की समस्या उस प्रगतिशीलता से बिल्कुल सिन्न है जिसे हम एक नत्रीन दाशंनिक सिद्धान्त या उपचार के रूप में जानते हैं। दोनो को एक हो लाठी से नद्दी हांका जा सकता । साहित्य मे जीवन की वास्तविक रचना करनी होती है अतः उसकी प्रगतिशीलता की माप जीवन- निमांणु की सफलता और असफलता के छाधार पर होगी।




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