शान्ति-सोपान | Shanti-sopan

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Shanti-sopan by ब्रह्मचारी ज्ञानानन्द - Brahmchari Gyanaanand

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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संरूप-सस्वोधेन। १७ कता य। कगणां साक्ता, तृत्फछाना सू एवं ब।हरन्तरुपायाभ्यां तपा पक्तवमवाह ॥ १ ०॥ शंथ--जो आत्मा बाह्य ' शत्र मित्र आदि थे अतरंग राग द्वेप आदि कोर्रणों से शानांवरणादिक कमो का' कर्ता थ॑ उनके सुख दुःखादि फलों का भोक्ता है, 'घही आत्मा बाह्य स्री; पुत्र, धन, धान्यादि का त्याग करने से क्र्मा'' के कतों भोक्तापने फे व्यवहार से मुक्ते भी हैं। अंथात्‌ जो संसार दशा , में कमों का कर्ता घ भोक्ता है घंही सुक्तेदशा में कर्मो' का कर्ता भोक्ता नहीं भी है ॥ (०8... '* ह . संदंहंशिज्षानचीरित्रयुपायः संवातर्छव्धये । के शा बच याधाल्यता स्थत्यमातमनों दर्शन मत ॥ १ १॥ यंथावद्ड सतुनिणातिः सम्यस्जञन पदापवतू-। वृत्खावद्यबसायातकधण्वत्ामत एथक (१२॥ , दशनेज्ञानप्यायप त्तरातरजावछए । जैस्थरमाल्म्बन-यद्वा गाध्यस्थ्य-सुखदुखया!। १३॥ जाता व्याज्मेकाएह, सुख दुख ने चांपर/। इतांद अावताहाब्य, चा रजमथवापरक ॥ १४॥ , अर्थ--सम्यग्द्शन सम्ब्शान और संम्यकचारित्र .ये तीनों अपने शुद्ध आत्मखरुप की आ्राप्ति अर्थात्‌ :संसारसे झुक्त मे ४ ह ु |




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