षट्खण्डागम जीवस्थान अन्तर भव अल्पबहुत्व खंड 1 | Shatkhandagam Jeevsthan Antar Bhaw Alpbahutva Khand- 1

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Shatkhandagam Jeevsthan Antar Bhaw Alpbahutva Khand- 1  by श्री हीरालाल जैन - Shri Hiralal Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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धवलाका गणितशात्र (६५) लिये घातांक नियमोंका उपयोग सर्वेसाधारण है | उदाहरणा- विश्वमरके विधुदकर्णोंकी गणना' करके उसकी व्यक्ति इस प्रकार की गई है--- १३६-२९४४ तथा, रूढ़ः संख्याओंके विकलन (8501 %ए४ंणा ० 717९8 ) को सूचित करनेवाली स्वयूज संख्या ( 819968? ॥प्चा7967 ). निन्न प्रकारत व्यक्त की जाती है- ३१४ १० ५११ संए्याओंको व्यक्त करनेवाले उपर्युक्त समस्त प्रकारोंका उपयोग धवछामें किया गया है। इससे स्पष्ट है |कि भारतवर्षमें उव प्रकारोंका ज्ञान सातवीं शताब्दिसे पृ हो सब्र-साधारण हो गया था | अनन्तका वर्गीकरण धवारम अनन्तका वर्गीकरण पाया जाता है| साहित्यमं अनन्त शब्दका- उपयोग अनेक अरथौमें हुआ है। जैन वर्गीकरणमें उन सबका ध्यान रखा गया है। जैन वर्गीकरणके अनुसार अनन्तके ग्यारह प्रकार हैं। जैसे- (१) नामाननन्‍्त-- नामका अनन्त | किसी भी बस्तु-समुदायके यथार्थतः अनन्त होने या न हेनिका विचार किये विना ही केवल उसका बहुत्व प्रगट करनेके लिये. साधारण वोलचालमें अथवा अबोध मनुष्यों द्वारा या उनके लिय, अथवा साहिल्यमें, उसे अनन्त कह्द दिया जाता है | ऐसी अवस्थामें / अनन्त ” शब्दका अथ नाममात्रका अनन्त है। इसे. दी नामानन्त कद्दते हैं। १ संख्या १३६ २६४ को दाशमिक-कमसे व्यक्त करने पर जो रूप प्रकट होता है वह हस प्रकार है-- १५,०४७,७२४,१३६,२७५,० ०२,५७७, ६०५, ६५३,९ ६१, १८ १,५५५,४ ६८ ,०४४,७१७,९ १४,५७२, ११६,७०९,३६६,२३१,४२५,०७६,१८५,६३१,०३१,२९ ६, इससे देखा जा सकता है कि २ का तृतीय वर्गित-संवर्गित अथीत्‌.९५६*४ विश्वसरके समस्त वियुत्‌- कर्णोकी संख्यासे अधिक होता है। यदि हम समस्त विश्वको एक शतरंजका फलक मान छें और विदुवकणोंको उसकी गोटियां, और दो विद्युतकणोंकी किसी भी परिदत्तिको इस विश्वके खेछकी एक. “ चार ? मान छें, तो सम्रस्त संभव ९ चालों * की संख्या--- 42० १२० १० र होगी | यह संख्या रूद संख्याओं-(.0717789 ) के विभाग (018070प0071 ) से मी संबंध रखती है। २ नीवाजीवमिस्सदब्वस्स कारणणिखेक्खा सण्णा अर्ता | घवछा ३;.पु..१:१७




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