अथ वेदांगप्रकाश [भाग 3] | Ath Vedangprakash [Bhag 3]

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Ath Vedangprakash [Bhag 3] by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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शजकारान्तः श्ज अथ' नियतनपुंसकलिएह धनशव्द ॥| घन शब्द को पृथवत््‌ प्रातिपदिकसंज्ञा आदि काय द्वोकर 'घन-स इस अवस्था में-- * ३६-अतोध्म्‌ ॥ झअ० ७1 १1 २७४॥ अकारान्त अन्न से परे सु और अम्‌ विभक्तियों के स्थान में अम्‌ आदेश दो । इस अम्‌ करने का यहद्दी प्रयोजन है कि सु(१)ओऔर कम का लुक पाता है सो न हो। धतम । घन--औ-- ४०-नपुसकाच ॥ झअ० ७1 १1 १६ ॥ जो अकाशन्‍्त नपुंसकलिड्ज से परे (२)ओऔड हो तो उसके स्थान में शी आदेश हो । जैसे--धन-शी । श्‌ की इत्संज्ञा होके--धन-ई । इस अचस्था मे (| “आदुगुणः' इस सूत्र से गुण होके -घलने। घन-जसू-- न्‍ ४१-जश्शसोः शिः ॥ अ० ७। १1 २०॥ * जो नपुंसकलिज्ञ स्‍भातिपदिक से परे जसू और शस्‌ विभक्ति हो तो उनके स्थान में शि आदेश हो । जैसे--धन--शि । ( $ ) “ख्मोनेपुसकात्‌” [ ना० ७० ] इस सूत्न से छुक्‌ प्राप्त था। (३२ ) 'कौढ? यह म्थमा और द्वितीया विभक्ति के ट्वितचन की आचीन आचार्यों' की संज्ञा है । 1 इससे जागे सूगति इंस शकार समझनी चाशिये--नहंसकर्छिंग मे सुद्‌ की सर्वभामस्थान संज्ञा न होने से यतिभम्‌र (चा» ४७ ) से भरंक्षा होकर “यस्येति? ( स्त्रे० ८०६ ) से अकार रेप प्रास होता है, उसका 'भीढः इयो मतिषेघः” (घा० ६1४1४) वार्तिक से निपेघ होता दै, उसके पश्चाव:-- ह ञ्




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