संसार तरणिका | Sansar Tarnika

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Sansar Tarnika by सेठ मिलापचन्दजी - Seth Milapachandaji

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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चउसरण पहुण्णा श् 3२२५०: ::स ४ १३+५५०: ता एथय कायब्व, बहेहि निच्चपि सकिलेसस्मि | होइ तिकाल सम्म, श्रसकिलेसस्मि सुरयफल ।६१। इसलिए वूद्धिमान साधक को रोगादि कारणों के उपस्थित होने पर सदा भ्रशरण मे शरण देनेवाले अ्ररिहत्त, सिद्ध, साधु, केवलि-प्ररपित धर्म, इन चार शरणो को स्वीकार करना चाहिए । इससे त्रिकाल में हिंत होता है और यह शरण बिना कष्ट के पुण्य सचय का कारण बनता है। चउरगो जिणधम्मो न कओ, चउरगसरणमसबि न फय । चउरगभवुच्छेओ न कओ हा ! हारिओ जम्मो (६२॥ दान, शील, तप एवं भाव रूप चार अग वाले जिनधर्म का मैंने ँ्राचरण मही किया ओर ससार से पार करने वाले इन चार शरणो को भी अगीकार नही किया । इस प्रकार मैने चतुर्गति भवश्रमण का उच्छेद भी नही किया। हा, मैंने मानव जैसे श्रेष्ठ जन्म को व्यथ गेंवा दिया । इश्र जीवपमायमहारिवोरभद्द तमेश्रमज्सयण 1 झाएसु तिसझमवझकारण निव्वुइसुहाण ।६३॥ इसलिए मैं जीव के प्रमाद रूप शत्रु का नाश बरने वाले और भ्रन्त में कल्याण करने वाले, इस चतु शरण अध्ययन का त्रिकाल-प्रात , मध्याह भोर साय, अध्ययन करता हूँ। क्योकि यह अध्ययन निश्चित रूप से मोक्ष सुष्ो को देने बाला है| ॥ चउसरपपदहइण्णा सम्मत्ता 1




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