ग्रामीण समाजशास्त्र | Gramin Samajshastra

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Gramin Samajshastra   by प्रो. रामेश्वरलाल - Prof. Rameshwar Lal

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भ् इस प्रकार के महत्वपुणण शास्त्र के बारे में पूर्ण जानकारी प्राप्त करने के लिए हम संवेप्रथम इसके श्रथ॑ को समभकने का प्रयांस करेंगे । इस शास्त्र के प्रति कुछ विद्वानों में कुछ गलत धारणायें भी प्रचलित हैं । ्रधघिकाँश व्यक्ति ग्रामीण समाजशास्त्र के उद्देश्य को निर्धारित करते हुए बतलाते हैं कि ग्राम्य जीधन में व्याप्त समस्पाध्रों का श्रध्ययन ही ग्रामीण समाज - शास्त्र का उद्देश्य है । समस्याश्रों के श्रध्ययन के सम्बन्ध में भी दो दृष्टिकोण प्रचलित हैं । नीचे हम इन दोनों दृष्टिकोणों का वर्णन करेंगे । (१) एक समस्या का सिद्धान्त (अंएछा० 1ि९०एलाा पफ़ाल्०एप) इस हप्टिकोण के समर्थक चिद्वानों का विचार यह है कि ग्रामीण समस्याओं का झ्राधार एक ही है । ग्रामीण समस्याश्ं का विश्लेषण्ण एक समस्या के रूप में किया जाना चाहिए । इन लोगों का विचार है कि ग्रामीण समस्यात्रों का एक मात्र कारण ग्रामीण श्राथिक स्थिति का श्रबनत होना है। ग्राम्य निध॑तता (प्ेघत्क्ा 0१15) अथवा ग्रामीण ग्राधिक व्यवस्था ही एक ऐसा प्राघार है जिस पर समस्त समस्‍यायें श्रवलम्बित हैं । इस श्राथिक व्यवस्था मैं विघटन श्राने पर समस्त सामाजिक जीवन विघटित एवं श्रव्यवस्थित हो जाता हैं। इस हृष्टिकोण के समथंकों का यहू भी कथन है कि प्रामीग् ढांचे की भ्रद्वतीय विशेषता ग्रामीण जीवन की सामाजिक एवं अधिक इंकारईयों का सम्मिश्रण है भ्र्धात्‌ वहाँ आर्थिक एवं सामाजिक संस्था नाम की कोई अलग इकाईयां कार्य नहीं करती बरन सामाजिक श्रौर झ्थिक इकाई एक ही है । इसके परिणामस्वरूप झ्राथिक ढांचे के विघटित होने से समस्त सामाजिक जीवत सिखरा एवं पिछड़ा हुमा रहता है । श्रत यदि ग्रामीसा समस्याओं को सुलभाना - है तो श्राथिक ढांचे को सुधारना होगा । इन लोगों का कथन है कि यदि ग्रामीण झथें व्यवस्था का ढांचा पूर्ण रूप से पुनः संगठित कर दिया जाय तो इसमें तनिक भी शंका नहीं कि ग्रामीण सामाजिक जीवन पुन एक संगठित एवं आत्मनिभेर इकाई ( 07छरुक्षांड6त काठ 3लाई 8प्तीधलिंहाएा (एफ ) के रूप में परिरित हो जायेगा । ग्रामीण क्षेत्र को उन्नति के सम्बन्ध में किये जाने वाले प्रारंभिक प्रयल इसी विचारधारा पर आधारित थे आर ये प्रयल पुर्णरूपेण श्राथिक व्यवस्था से सम्बन्धित थे । कृषि क्षेत्र में किये गये विभित्न अ्रस्वेषण भी इसी विचारघारा से प्रभावित थे । (२) बहु-संमस्याओओं का सिद्धान्त (शणध-ए०छ1800 फीलणफ) यह हृष्टिकोण उपरोक्त दृष्टिकोण से पूर्णतः भिन्न है । इस मत के




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