संक्षिप्त आत्म - कथा | Sankshipt Aatm - Katha

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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आंखे खुलीं १७ यों हिम्मत नहीं हारनी है। मांसाहार एक कतंव्य है और मुझे हिम्मत से काम लेना चाहिए। प्र आंखें खुलीं मरे मित्र हार मानने वाले न थे। उन्होंने अब मांसको भांति- भांतिसे पकाकर रुचिकर बनाना तथा सजाकर रखना शुरू क्रिया | नदी किनारेके बजाय किसी बावरचीसे सांठ गांठ करस्के गुप्त रूपसे राज्यके एक भवनमें ल्ैज्ानेका प्रबन्ध किया। वां भोजन-भवन तथा मेज-कुर्लीके ठाठ-बाटने मुझे लुभा लिया।' इसका ठीक असर पड़ा। रोटीसे जो नफरत थी, ढीली पढ़ गई | बकरेपरकीं दया गायब हो गई और मांधका तो नहीं, पर मांसवाले पदाथाका जीभको चस्का लग गया यो'एक साल्ल बीता होगा, और इतने समयमें पाच-छः बार मांसाहारका मौका मिला होगा; क्योंकि बार-बार दरबार-मवनका प्रबन्ध होना कठिन था 'और न सदा मांसके खादिष्ट उत्तम पदाथ तैयार हो सकते थे। इसके सिवा ऐसे भोजनोींपर खच खासा बैठता था। मेरे पास तो कारनीं कोड़ी भी न थीं। में देता क्या ? इस खेचेका इंतजाम बो उस मित्रके ही ज़िम्मे होता था। मुझे आज तक पता नहीं कि उसने क्या इंतजाम किया था। उसका इरादा तो था मुमे मांसकी चाट लगा देना, मुझे फसा देना | इसलिए खच का भार भी वह खुद उठाता था; पर उसके पास कोई कारूका खजाना तो था ही नहीं | इस कारण ऐसे खाने तो'कभी-कभी ही सभव थे ।




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