साहू शांति प्रसाद जैन | Sahu Shanti Prasad Jain

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Sahu Shanti Prasad Jain by श्री मूर्ति देवी - Shri Murti Devi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अस्तावन्ता ११: आठवें अध्यायम ऐसे छु्द स्थल है । _अथम स्थल दूसरा सूत्र है। श्वेतास्वर परम्परा इसे दो सूत्र मानकर चलती है । दूसरा स्थल शानावरणके पॉच भेदोका प्रतिपादक सूत्र है| इसमे दिगम्बर परु्पणा शानके पॉच भेदोका नाम निदेश करती है किन्तु र्वेताम्बर परम्परा 'मत्यादीनाम! इतना कहकर ही छोड देती है | तीसश स्थल दशनावरणके नामोका प्रतिपादक सूत्र है । इसमे श्वेताम्बर परपरा पॉच थिद्लाश्रोंके नामोके साथ 'वेदनीय! पद अधिक जोडती है। चौथा स्थल मोहनीयके नामोंका प्रतिपादक रुत्र है। इसमे नामोके ऋ्रमके ्रतिपादनमे दोनो परंपराओने अलग अलग सरणों स्वीकार की है. | पॉचवा अ्रन्तरायके नामोका प्रतिपादक सूत्र है। इसमें दिगंबर परंपरा पाँच नामोंका निर्देश करती है और श्वेताबर परंपरा 'दानादीनाम! इतना कहकर छोड़ देती है। छठ्वोँ स्थल पुष्य और पाप प्रकृतियोके प्रतिपादक दो सूत्र हैं । यहाँ श्वेतावर परंपराने एक तो पुष्य प्रक्ृतियोमे सम्यकत्व, हास्य, रति और पुरुषवेद इनकी भी परिगणना की है । दूसरे पापप्रकृतियोका प्रतिपादक सूत्र नहीं कहा है। नोवें श्रध्यायमे ऐसे छुद् स्थल है | प्रथम स्थल दस धघर्मोंका प्रतिपादक सूत्र है। इसमे दिगम्बर परम्परा उत्तम” पदकों क्षमा आदिका विशेषण मानकर चलती है और र्वेताम्बर परम्परा धर्मका विशेषण मानकर चलती है, फिर भी वह उत्तम! पदका पाठ “धर्म! पदके साथ अ्रन्तर्मे न करके सूत्के प्रारम्भमें ही करती है। दूसरा स्थल पॉच चारिनोका प्रतिपादक सूच है। इसमे दिगम्बर परम्परा 'इति' पदको अधिक स्वीकार करती है। तीसरा स्थल ध्यानका प्रतिपादक सूत्र है। इसमे 'अन्तमुंहूर्तात्‌” के स्थानमे श्वेताम्बर परम्परा आ मुहूर्तात्‌' पाठ स्वीकार कर उसे स्वतन्त्र सूत्र मानती है । चौथा स्थल आतंध्यानके प्रतिपादक सूत्र हे । इनमें श्वेताम्धर परम्पराने एक तो 'मनोशस्थ” और “अमनोशस्य” के स्थानमें बहुबचनान्त पाठ स्वीकार किया है। दूसरे 'बेदनायाश्र! सूत्रकोी विपरीत मनोशस्य'के पहले रखा हे। पॉचवा स्थल धम्येव्यानका प्रतिपादक झूत् है| इसमे श्वेतास्र परम्परा श्रप्रमत्तसंयतस्थ' इतना पाठ अधिक स्वीकार कर डपशान्तक्ञीणकप/थयोश्र! यह सूत्र स्वतन्त्र मानती है। छुठवों स्थल 'एकाश्रये? इत्यादि सूत्र है। इसमे 'सवितर्कविचारे' के स्थानमे श्वेताम्बर परम्परा 'सवितके” पाठ स्वीकार करती है । दसवें अध्यायमे ऐसे तीन स्थल हैं | प्रथम स्थल दूसरा सूत्र है। श्वेताम्बर परम्पण इसे दो मूत्र मानकर चलती है। दूसरा स्थल तीसरा और चौथा सत्र है। रवेताम्बर परम्परा एक तो इन दो सूत्रोंकी एक मानती है। दूसरे भव्यत्वानाम! के स्थानमे भव्यत्वामावात्‌” पाठ स्वीकार करती है। तीसरा स्थल पू्नप्रयो- गात्‌” इत्यादि सूत्र है। इस सूत्रके श्रन्तमे श्वेताम्बर परम्परा 'तिदगतिः” इतना पाठ अधिक स्वीकार करती है । तथा इस सूत्रके आगे कहे गए दो सूत्रोको वह स्वीकार नहीं करती । इन पाठ भेदोके श्रतिरिक्त दसो अध्यायोमै छोटे मोटे और भी बहुतसे फरक हुए हे जिनका विशेष मदृत्त न होनेसे यहाँ हमने उनका उल्लेख नहीं किया है । ३ सूज् पाठोमे मतभेद यहां हमने दिगम्बर और शवेताम्बर परम्परामान्य जिन सूत्र पाठोके अन्तरका उल्लेख किया है वह सर्वा्वस्िद्धि और तस्वार्थमाष्यमान्य सूत्र पाठोको ध्यान में रखकर ही किया है । यदि हम इन मूत्र पाठोके भीतर जाते ६ तो हमें वह मतभेद और भी अ्रधिक दिखाई देता है । फिर भी यह वात सर्वायसिद्धि मान्य सूत्र पाठ पर लागू नही होती | सर्वार्थसिद्धिकारके सामने जो पाठ रहा है और उन्होंने निर्शय करके जिसे सृत्रकारता माना हैं, उत्तर




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