नाचे मन मोरा | Nache Man Mora
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
7 MB
कुल पष्ठ :
276
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)सनातन को दादा की दृष्टि मे पुनः चमक दिखाई दी। उनकी सान्यता
थी कि कमजोर सगे-संवन्धियों के होने से घाटा उठाना पढता है और लोब-
लज्जा से आश्रय देना ही होता है।
“बोल, बम्त्रई जा-आवेगा न ?!
दा “किन्तु मुझे यह प्रच्छा नहीं लगता है।' सनातन ने आउुलता से
!
अरे भले आदमी तुमे वहाँ कोई आजन्म नही रहना है। दो चार-दिन
बिताकर आ जाना। नया स्थान देसने को मिलेगा तथा संवन्धी के हृदय को
भी इससे शञाति मिलेगी ।
होक, दादा ! जा-आऊंँंगा !!
“भगवान् तेरी रक्षा करे ।
मानो पौत्र से ये ही अन्तिम शब्द सुनने को इच्छुक हो और इसी
कारण से जीवन बचा हो, वैसे ही आश्ञीवाद के इन अन्तिम श्ब्दों के साथ
भेवरसेठ ने अन्तिम सांस ली और वे परलोक चसे गएं। और रानातन !
वरद्हस्त सनातन के सिर से उठ गया ।
भेवरसेठ के मृत्यु के समाचार ने सातो गाँवों के ग्रामीणों को, विशेष
हूप से किसानों को, कककोर दिया ।
समाचार मिलते ही पच्चीस-पत्रास प्रादमियों वे मुण्ड-के-मुण्ड झोक
प्रकट करने आने लगे और सनातन ने सवको सालवना देना शुरू किया ।
प्रपने दादा की मृत्यु धर झोक प्रकट करने को बम्बई से उसके सुमराल
दाले अपने दोन्तीन भाई-बधी के साथ एवं दिन भाए और भले गए । बयोदि
उनको गाँव में गरम-गरम लू थलने के कारण जीना जोखिमपूर्ण महमुस हुआ।
रीधि-रिवाज के अनुसार द्वादसा तक रकना चाहिए था डिन््तु ऐसे
समय में सैचा-तान करना अशज्ञोभनीय प्रतीत होता है ।
जिस समय लौटती गाडी से इन लोगो ने बम्वई थी राह लीं उस
समय सनातन के मन को एक घकका लगा । किल्तु दादाजी की मृत्यु वे दुः्स
के सामते इस दु.स की कोई गिनती नहीं घी, अत. यह दुःय दीधे समम तक
नहीं टिक सवा ।
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