विवेकानन्द साहित्य खंड 7 | Vivekanand Sahitya khand 7
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
194.52 MB
कुल पष्ठ :
432
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)श्५ ं न देववाणी इस संसार में सभी युगों के सभी देशों के सभी शास्त्र और सभी सत्य वेद हैं क्योंकि ये सभी सत्य अनुभवगम्य हैं और सभी लोग इन सब सत्यों की उपलब्धि कर सकते हैं । . जब प्रेम का सु क्षितिज पर उदित होने लगता हैं तब हम सभी कर्मों को ईरवरापंण कर देना चाहते हैं और उसकी एक क्षण की भी विस्मृति से हमें बड़े क्लेश का अनुभव होता है। ईरवर और उनके प्रति तुम्हारी भक्ति--दोनों के बीच कोई भी अन्य वस्तु नहीं होनी चाहिए। उनकी भक्ति करो उनकी भक्ति करो उनसे प्रेम करो । गोग कुछ भी कहें कहने दो उसकी परवाह मत करो। प्रेम (भक्ति ) तीन प्रकार का होता है--पहला वह जो माँगना ही जानता है देना नहीं दूसरा है विनिमय और तीसरा हैं प्रतिदान के विचार मात्र से भी रहित प्रेम-दीपक के प्रति पतंग के प्रेम के सदझ। यह भक्ति कमें ज्ञान और योग से भी श्रेष्ठ हैं। कर्म के द्वारा केवल कर्म करनेवाले का ही प्रशिक्षण होता है उससे दूसरों का कुछ उपकार नहीं होता । हमें अपनी समस्या को स्वयं ही सुलझाना हैं महा- पुरुष तो हमारा केवल पथ-प्रदशन करते हैं। और जो तुम विचार करते हो वह तुम बन भी जाते हो। ईरा के श्री चरणों में यदि तुम अपने को सर्मापत कर दोगे तो तुम्हें सबंदा उनका चिन्तन करना होगा और इस चिन्तन के फल- स्वरूप तुम तद्वत् बन जाओगे इस प्रकार तुम उनसे प्रेम करते हो। पराभक्ति और पराविद्या दोनों एक ही हैं । किन्तु ईश्वर के सम्बन्ध में केवल नानाविघ मत-मतान्तरों की आलोचना करने से काम नहीं चढछेगा। ईदवर से प्रेम करना होगा और साधना करनी होगी । संसार और सांसारिक विषयों का त्याग विशेषत तब करो जब पौधा . सुकुमार रहता है। दिन-रात ईश्वर का चिन्तन करो जहाँ तक हो सके दूसरे विषयों का चिन्तन छोड़ दो। सभी आवश्यक दैनंदिन विचारों का चिन्तन ईर्वर के माध्यम से किया जा सकता है। ईदवर को अर्पित करके खाओ उसको अपित करके पिओ उसको अर्पित करके सोओ सबमें उसीको देखो। दूसरों से उसकी चर्चा करो यह सबसे अधिक उपयोगी है। दनयसतजररतपमरसतलतवावमदतववलवसवसराजयवथ १. इन प्रेमा भक्ति के रूपों को क्रमदा साधारणी समंजसा तथा समर्था कहा गया है। २८ सा तु कर्मज्ञानयोगेम्यो5प्यधिकतरा ॥ नारदभक्तिसुत्र ॥॥४1२५॥।
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