सास्वत शरण | Saswat Sharan
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
6 MB
कुल पष्ठ :
208
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)चिंतन कुछ, फिर सम्भाषण कुछ, वृत्ति कुछ की कुछ होती है।
स्थिरता निजमें प्रभु पाऊँ, जो अन्तर का कालुप धोती है॥
3७ हीं श्री देवशास्त्रगुरुभ्यो कामवाणविध्वसनाय पुष्प निर्वपामीति स्वाहा ॥४॥
अबतक अगणित जड द्रव्यो से, प्रभु। भूख न मेरी शात हुई।
तृष्णा की खाई खूब भरी, पर रिक्त रही वह रिक्त रही॥
युग युग से इच्छासागर मे, प्रभु। गोते खाता आया हूँ।
पचेन्द्रिय मन के पटू-रस तज, अनुपम रस पीने आया हू॥
3० हों श्री देवशास्त्रगुरुभ्यो - श्ुधारोगविनाशनाय नैबेच्य निरवंपामीति स्वाहा ॥५ ॥
जग के जड दीपक की अवतक समझा था मेंने उजियारा।
झञ्ञा के एक झकोरे मे जो बनता घोर तिमिर कार॥
अतएव प्रभो। यह नश्वर दीप, समर्पण करने आया हूँ।
तेरी अन्तर लौ से निज अन्तर, दीप जलाने आया हूँ॥
35 ही श्री देवशास्त्रगुरुभ्यों मोहान्धकार विवाज्ञवाय दीप तिर्वप्रमीति स्वाहा ॥६॥
जड कर्म घुमाता है मुझकों यह मिथ्या भ्राति रही मेरी।
मैं रागीद्वेपी हो लेता, जब परिणति होती जड केरी।।
यो भाव-करम या भाव-मरण, सदियो से करता आया हें।
निज अनुपमगंध अनल से प्रभु, पर-गध जलाने आया हूँ॥
७ हीं श्री देवशास्त्रगुरुभ्यो अप्टकर्मदहनाय धृप निर्वपामीति स्वाहा ॥७॥
जग मे जिसको निज कहता में, वह छोड मुझे चल देता है।
मैं आकुल व्याकुल हो लेता, व्याकुल का फल व्याकुलता है।
मैं शात निराकुल चेतन हू, है मुक्तिरमा सहचर मेरी।
यह मोह तडक कर टूट पडे, प्रभु सार्थक फल पूजा तेरी।
३७ हीं श्री देवशास्त्रगुरुभ्यो मोक्ष फलग्राप्ताये फल निर्वपामीति स्वाहा ॥८॥
क्षणभर निजरस को पी चेतन, मिथ्यामल को धो देता है।
कापायिक भाव विनप्ट किये, निज आनद अमृत पीता है ॥
शाश्वत शरण एः
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