प्रमाणनयतत्वालोकालंकार | Pramananayatattvalokalankara

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Pramananayatattvalokalankara by बंशीधर शर्मा - Banshidhar Sharma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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+$७७७७७७७७७ 202००००९०७०००७०४७००००७०७०७३ ३४५ 555 5 5 5 5 प्त वायक कारण ही नहीं हैं उतु सक्केत मात्र ही कारण है यह कथन ठीऊ नहीं है। और सक्केत मातसे ससाधकी उत्पत्ति मान लेमैपर बाध्य और वायका तदुत्ति सयध है वैसा भी समधफो नहीं फह सकते हैं। यदि सडझ्ेत सहकृत जो वाच्य याचफ उनसे यह साध उत्पन्न होता है इस अर्थवाले तृतीय, अयतोडपि पक्षकों खीफार करोंगे तो हम पूछते हैं. कि यह्‌ नो सक्ेत है सो तुम प्रतीत, ज्ञात, पदार्थ्मे करते हो अथवा अज्ञातमें फरते हो | अप्रतीत वस्तुषिषयक तो सश्केत तुम नहीं कह मस्ते क्योंकि ( देशादि विप्र कृष्ट ) दूर॒बरतो, पदाथम भी सड्ेतकी प्राप्ति होजावेगी | प्रतीतर्मे भी नहीं कह-सकते क्योंकि सर्वे पदार्थ क्षणिक दोनेसे उत्तत्ति कारमें दी प्रचड वायुसे कपित मेघऱी तरहसे नाश हो जायेंगे तब सक्लेत किसमें करोंगे । यदि प्रतीत क्षण, ( पदार्थ ) समान जातिबाले क्षणोंकी परपरा ( धारा ) के विद्यमान होनेसे पदार्भोों क्यों नहीं सड्ेत गोचरता, विपयता, हो सफती अर्धीत्‌ अवश्य दो सकेगी वैसा कहते हो तव यह कथन ठीक नहीं है क्योंकि विद्यमान भी अप्रतीत पदार्थ पूर्षोक्त अतिप्रसह् दोपते शब्दका विषय नहीं हो सकता । और जो पहिले धतीत हुआ था सो प्रतीति काछमें ही व्यतीत, पाश, हो शुका है । इसी रीतिसे शद्ध भी प्रतीत अथवा अप्रतीत क्षणिक पदायम सक्षेतित होता है प्रतीत अपतीत उमय विक्रम पूर्ववत्‌ दी दोप होते हैं। जय पूवोक्त रीतिसे सड्भेत ही नहीं हुआ तय वाच्य वाचक भावरूप सबंधकी उत्पत्ति स्सि रीतिसे होय सकती दे अर्थात्‌ नहीं हो सकती | तुष्यतु दुजन न्यावसे कहते है कि पूर्वोक्त शब्द और अये व्यक्तिये क्षणिकल पराड्मुस ) ग्पिर, रद और सड्षेतके साथ मिलकर वाच्य वाचक भावरुप सबंघऱो उत्तर भी करें परन्तु जिस शब्द व्यक्तीका जिस अर्थ व्यक्तीमं स्नेत क्रिया था वही शब्दार्थ व्यक्ती व्यवह्ारकाल्परयत नहीं रहती है, ( इत्यनुभविद्ध ) इसलिये अभीन्‍्तरमें और शब्दान्तरमें सड्भेतान्तर करना चाहिये यह सिद्धान्त हुआ तब इस सिद्धातसे तो ससारमे व्यवदारके अमा- बा ही समय हो जावेगा । वर्योकि प्रतिवाच्यवाचकर्म सद्रेतक्ताके (अवश्यम्माव) जरूर होनेका अमाव है अथोत्‌ जरूर नहीं है। अथ सामान्यगोचर एवं सद्भेतः क्रियते । तदेव थे वाच्यवाचकमाधाधिकरणम्‌ कालान्तरव्यकत्यम्तराजुसरण- नैषुण्यघर च निल्त्वाद व्यक्तिनिएलवाचेति चेत्त॒न्नमनीपिमान्य सामान्यसाभावात्‌ | कथ प्रविमासमाजनमपितक्नास्तीति चेन्न तत्मतिमाषासिद्धे! | तथादि दर्शने परिस्फुटलेनासाधारणमेव रूप प्रथंत न साधारणम्‌ | अथ साधारणमपि रुपमनुभूयते । गोगारिति तद्साधीय* शावल्ेयबाहुलेयादि तीततीवतरगोशब्दाद्रिपविवेकेन तस्याप्रतिमासनात्‌ | ्ि /90०००००००००००००७०७००००७०७७०३००७०००००००७०७०७००७७०९०७००७७०७७७




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