आईना - ए - रूह | Aaina - E - Ruh

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Aaina - E - Ruh by रंजना भरतीया - Ranjana Bharatiya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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रुसदा किया कई बार मुझको इस ज़माने ने टूटा था वार्बार दिल आँसू बहाने में॥। नफरत के कूचे में ,उल्फततत के नकृबपोश थे तो भला फिर देर क्‍या थी जान जाने में॥ सउस्कूरा पड़े थे वो रूबरू मुझे देखकर जानती थी मैं जहर , उनके ठिकाने में।। पैशानी पर सिलवटें , उमशी जरा कुछ सोचकर उलझन भरी किसी सोच को भीतर ऐिपाने में।। देते रहे उतल्फत मुझे ऐसी अदा से भीड़ में तनहाइयों में साथ दे जो, जी जलाने में।। जब रूह से ही, रूह की पहचान आज खो गयी तो क्यों निमाएं साथ वो यारी निमाने में।। उजडा पड़ा है आज, दिल का मेरे ये. वतन कि चोट भी लगती नहीं गोली के खाने मे! दर्द के मैख़ने में पैमाना क्‍यों खाली पड़ा क्यों ज़ार-ज़ार रोये मन आके शराबखाने में।। आईना-ए-रूह / 25




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