शाकुन्तल नाटक | Shakuntal Natak

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Shakuntal Natak  by पं ज्वालाप्रसाद मिश्र - Pn. Jvalaprsad Mishr

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अंक-? . ( २९८ ) झकुन्तला--( आपही आप ) जो अपनेको वशमें रख सकी तो ( प्रगट ) जानेकी आज्ञा देनेवाली अथवा रोकनेवाली तुम कौन हो ? कर ( दादरा 2) पियके बचत भूलि नहिं जेहों ! हियरेके अन्तर नित राखों, जो अपने वशमें हो. रेहां ॥ #्‌ (७ प्रथम मिलाप न देख सकत हे, मेरो श्रम केहिनभा मुलेहों | नेह कि. 0 | की का दयानेहं उपकार खुबोलानि, म॒ण्हू मनतें ना|हे मिटहां ॥ ममहित घरत कमलकर गगरी, याके पलटे भें कह देह मिश्र भ्राण सर्वेस्व हमारे, तन मन वार नेह इन लेहों ॥२७७ राजा-( शऊुन्तछाको देखकर आप ही आप ) जेसा मेरा मन इससे लगा है वैसा ही इसका भी मुझसे उलझा दिखाई देता है, अथवा मेरे मनोरथ हो होनेके लक्षण ता दीखते हैं। ( दादशा ) मनकी लगन ये छिपाए छिपे ना, यदपि ने बातन बाल मेलावत, तदापि सुनत हितकर मम बेना । सनन्‍मख अपगय होत नहंह ठादी, कियेहि रहत इतको दोठ नेता । यह सकुचाने यह नेह दहुन दिशि, लखि लखि जिय अब धीर घरे ना ॥ २८॥ ( नेपथ्यमें ) है हे तपस्वियो ! आओ, मिलकर तपोवनके जीवोंक्ी रक्षा करो, छगया खेलता हुआ राजा दुष्यन्त समीप आ पहुंचा है, देखी: - यह देखो कोसी धूर उड़ी सब बनमें छाई है ॥ आस्ताइ॥ घोड़ोंके पगोंसे उड़कर, पड़ती वसनोंप आकर । जो सूख रहे हें दक्लोंपर, धूसरता पाई हे ॥ 4 सन्ध्याकी अरूणता माही, टीड़ीदल ज्यों दरश्ाही ।




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