अभिज्ञानशाकुन्तलम् | Abhigyan Shakuntalam
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
48 MB
कुल पष्ठ :
603
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)[ ११
यित्ी के प्रति विशेष पक्षपात ध्वनित होता है । अत' अधिकाश विद्वान् उन्हे उज्जयिनी
का ही निवासी मानते है ।
अब हम बाह्य और अन्त साक्ष्यो के आधार पर महाकवि कालिदास के स्थिति
काल का निश्चय करने का प्रयास करेगे । बाह्य साक्ष्यो मे सर्वाधिक उल्लेखनीय बाणभट्ट
की कादम्बरी' है जिसकी प्रस्तावना मे कवि ने कालिदास की प्रशस्त प्रशसा की है। बाण
भट्ट कान्यकुब्जेश्वर सम्राट हषंवद्धत (६०६ ई० से ६४८ ई०) के राज कवि थे । अत.
कालिदास का स्थिति काल सातवी शताब्दी से पूर्व का ठहरता है । अन्तः साक्ष्यों के
आधार पर कालिदास के मालविकासिनि सित्र' तथा “विक्रमोर्वशीयम्! नामक नाटकों
को लिया जा सकता है। “विक्रमोवेशीयम् का नायक पुरूरवा होने पर भी उसके स्थान
पर विक्रम का नामोल्लेख तथा इस ताटठक मे विद्यमान अनुत्सेक खलु विक्रमालकार
यह वाक्य यह प्रमाणित करते है कि वे किसी विक्रम अथवा विक्रमादित्य से सम्बद्ध
थे । विद्वत्समाज मे यह धारणा अति प्राचीनकाल से चली आ रही है कि कालिदास
विक्रम के नव-रत्तो मे एक थे। 'मालविकाम्निमित्र एक ऐतिहासिक नाटक है जिसमे
पुष्यमित्र शुग के पुत्र अग्तिमित्र तथा मालविका नामक राजकुमारी की प्रणय-कथा
वणणित है। अभ्निमित्र का स्थिति काल ईस्वीय द्वितीय शतक है। अत कालिदास
के स्थिति काल की. प्राचीन रेखा द्वितीय शतक ई० पू० के बाद की ठहरती है।
तात्पय यह कि कालिदास द्वितीय शतक ईसा पूर्व तथा सप्तम शतक ईस्वीय के मध्य
कभी रहे होगे । यो तो फ्रेंच विद्वान हिप्पोलाइट फ्रॉश कालिदास को रघुवश के
अन्तिम राजा अग्निवर्ण का समकालीन मानते है जिनका स्थिति काल ८वी शताब्दी
ईपा पूर्व है और डॉ० भाऊदाजी आदि विद्वानों ने उन्हे राजा भोज (११वीं शताब्दी
ई०) का समकालीन बतलाने का प्रयास किया है, पर उपयु क्त अन्त एवं बाह्य साक्ष्यों
द्वारा इन पध्रान्तियों का स्वत प्रत्याख्यान हो जाता है। कालिदास के स्थिति काल के
सम्बन्ध मे बहुचचित मत केवल तीन हैं जो निम्नलिखित है---
(१) षष्ठ शतक विषयक मत ,
(२) गुप्कालीन मत ; और
(३) ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी का मत ।
(१) बष्ठ शतक विषयक मत--इस मत के प्रवर्तेक डॉ० फरयु सन, हार्नेली
और डॉ० हरप्रसाद शास्त्री आदि विद्वान है। इनका मत है कि छठी शताब्दी में
सम्राट यशोधमंन् ने बालादित्य नरसिह गुप्त की सहायता से हृणो को कारूर की
लडाई में परास्त किया था । इस महत्वपूर्ण विजय के उपलक्ष्य मे उसने विक्रमादित्य
की उपाधि धारण कर एक नवीन सबत् चलाया था जो विक्रम सवत् के नाम से
विख्यात हुआ , परन्तु इस सवत् को प्राचीन सिद्ध करने की इच्छा से उसने इसे ५७
ईसा पूर्व से स्थापित होने की बात प्रचारित की थी। हार्नेली का कथन है कि 'रघु.
वश” महाकाव्य में वर्णित रघु का दिग्विजय यशोधमंन् की राज्य-सीमा से बिल्कुल
मिलता जुलता है ।
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