अन्तकृद्दशासूत्र | Antakriddashasutr

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Antakriddashasutr  by श्री मिश्रीलाल जी महाराज - Sri Mishrilal Ji Maharaj

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रस्तावना अतह्तकरा : एक अआध्ययतल प्रतीत के सुनहरे इतिहास के पृष्ठों बाग जब हम गहराई से अनुशीलग-परिशोलन फरते है तो यहू रपट परिज्ञात होता है कि प्रागैतिहासिक-काल से ही भारतीय तत््वलिन्तन दो धाराओं में प्रवाहित है, जिमे हम ब्राह्मण संस्कति श्रौर श्रमरण संस्कृति के नाम से जानते-पहचानते हैँ | दोनों ही संस्कृतियों वा उदगशभरथज ही रहा है । यहां की पावन-पुण्य घरा पर दोनों ही संस्कृतियां फलती और फूलती रही हैं। दोनों हो संस्कृतियाँ साथ में रहों इसलिये एक संस्कृति की विचारधारा का दूसरी संस्कृति पर प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है, सहज है । दोनों ही संस्कृतियों की मौलिक विचारधाराश्रों में अनेक समानताएं होने पर भी दोनों में भिन्नताएं है ब्राह्मण संस्कृति के मूलभूत चित्तन का स्रोत विद” है । जैन परम्परा के चिन्तन का भारत भी हूँ। शआराद्य स्रोत “आझागम! है। वेद 'भ्र्ति' के नाम से विश्वत है तो आगम “शर्त” के नाम से | श्लूति और श्रृत शब्द में श्रर्थ की दृष्टि से अत्यधिक साम्य है। दोनों का सम्बन्ध “श्रवण! से है | जो सुनने में श्राया वह श्र्‌त हैं ।। और वही भावचाचक अवश श्र्‌ति है। केवल शब्द श्रवण करता ही श्र्‌त्ति ओर श्रूत का अभीष्ट अर्थ नहीं है । उसका तात्पर्यार्थ है--- जो वास्तविक हो, प्रमाणभूत हो, जन-जन के मंगल को उदात्त विचारधारा को लिये हुए हो, जो आ्ाप्त पुरुषों व सज्ञ-सर्वदर्शी वीतराग महापुदपों के द्वारा कथित हो वह श्रागम है, श्रूत है, श्रूति है। साधारणा-व्यक्ति जो राग-हं ष से संत्रस्त है, उसके वचन श्र्‌त और श्र्‌ति की कोटि में नहीं आते हैं । आचाय वादिदेव ने श्रागम की परिभाषा करते हुए लिखा है--भ्राप्त वचनों से श्राविभ त होने वाला अर्थ-संवेदन ही “आगम” है ।* २१. क. श्र॒य॒ते स्मेति श्र तम | --तस्वार्थराजवातिक । जे. श्लूत्ते आत्मना तदिति श्र्‌तं शब्द: | --विशेषावप्यकभाष्य मलधारीयावत्ति । ९. आप्तवचनादाविभूतमर्थसंवेदनमागम -प्रमाणनयतत्वालोक ४1१---२ |




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