दैवत - संहिता | Daivat - Sanhita

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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चैवत-सहिता इद्दजौफिक और पारझौकिक उद्चधतिपर समान जोर है। वैदिकोत्तर स्घतियोंमें धर्मका छक्षण ही यह है कि शमभ्युद्य भौर निश्नेयसकी उदच्ति सिद्ध गछा ही धर्म है। + । वैदिक संस्कृतिमें वे सारे सत्त्व प़ार्मे मौजूद है, जो मनुष्यको झादुश बना सकते हैं । 5 सस्कृतिम आत्मा और परमात्मामें दृढ विश्वास रखती प्रह विश्वास मलुप्यमें आध्यात्मिकता उत्पन्न करता बैदिक सस्क्ृतति प्रकृति और उससे बने भौतिक शरीर त्ताको स्वीकार करती है कौर इसीलिए शरीरकी कर आावदयकताओंकी पूर्त्तिक लिए सब प्रकारकी प्रावृ डक्नति करनेकी भी प्रेरणा देती है। वेदोमें आदेश हे उनुष्य इस ससारमें रहकर उत्तमोत्तम भोग भोगे। दुका मजुष्य कहता हैं-- रह भुव बखुन पृव्य॑स्पाति अहँ धनानि सजयामे शाश्वत | ऋ $०४८॥१ मेँ धनका सबसे प्रथम स्वामी हूँ, मैंने हमेशा धनोंको 1है।! गैर जगद् जयद्द परमात्मासे भी प्रार्थना की गई हेकि “ दे त्मन्‌ ' हमें उत्तम उत्तम धाका स्वामी यनाइये 1 गाय, धोढ़े और सुदण णादि धन सदस्नोंकी सख्यासे ए्‌?। इस प्रकार वेदुस भौतिक उन्नति करनेकी भी प्रेरणा है। यह संसार हमारा घर है, हम इसक स्थामी हैं। इमें सुख देनेके लिए ही परमात्माने इस संसारमा निर्माण किया है। महात्मा खुद्धन इसके विपरीत छोगोंको थद्त ज्ञान दिया कि * ससार क्षणभंगुर है, यद्द अत्यन्त दु खमय हे, अत हे मनुष्यो ! यद्द ससार देय है। इसको छोड दो भर सन्‍्यासी या भिक्षुक होकर यहां रहो ? । पर देद इसके विपरीत छोगोंको भादेश देता है कि--- कुर्वन्नेवेह कर्मांणि जिजीविपेत्‌ शत समा; । यज्ञु ४०१२ « हे मनुध्यो ! इस संसारमें तुम झुभ कर्म करते हुए सौ बे तक भानन्दसे जीवो ” । बेदके पुरप-सूक्तमें तथा गीता- क ग्यारहवें अध्यायमें यह बात बडे विस्तारसे समझाई है कि यह विश्व सच्चिदानन्द परमात्माका ही रूप है। आनन्द मय परमात्मा इसमें सर्वश्न ब्याप्त है। उसका व्याप्तस्वरूप पविश्न है-- पवित्न ते वितत बह्मणस्पते प्रभुगाच्राणि पर्येपि विश्वत ।ऋ १८३8१ अत जो विश्व आनन्द्मय परमात्माका रूप है, वह दु ख मय कैसे द्वो सकता है ? यह जगत्‌ पचभूतात्मक है। ये पूथिवी, जल, अप्लि, वायु और आकाश पचभूत भी इमें सुख ही देते हैं । प्थिवी हमें भाधार देकर, जर हमारी ३ 'ध्ाखयोनित्वाद्‌ ! वे सू १1१1६ मद्दत ऋग्वेदादे शाख्रस्थ क्नेकविद्यास्थानोपब॒द्दितस्प प्रदापवत्‌ सर्वार्थावधोतिन सर्वश्कल्पस्थ योनि कारण ग्रद्ष । नद्ीव्शस्य शास्रस्य ऋग्ेदादिरक्षणस्य सर्वेश्ञ गुगान्वरितस्प सर्वज्ञादन्यतः संभवो5सहित | ऋशग्वेदादा स्पस्प सर्वक्तनाकरस्य अप्रयत्ननैव लीटान्यायेन पुरपति श्रास्वत्‌ यस्मान्मद्रतों भूदात्‌ योने सभव ।( शाकर भात्य ) ३ न पौरपेयर्ख तत्कर्नु पुरुपस्यामावातू- सा खू ५४६ वेद पौरपय भहीं, क्योंकि उसका बनानेवाटा कोई पुरुष नहीं द्वो सकता । ७ यस्‍स्य नि श्वसित बेदा थो बद्मभ्पो$खिएछ जगत्‌ । निर्मम तमह यस्दे विचातीय संदेखरस ॥ सायण, ऋग्वेद्‌भाष्य-्अस्तावना । ६ अनादिनिधना विदा यागुरस्‌श् स्वयंभुवा 1 बंद दब्दभ्य एवादी निमिमात स ईश्वर ॥ मद्दामारत शान्ति पव २६३२1२४-२६ ७ शश्याकज्ञासईैद्युत ऋच सामानि जशिरि। छस्दां सि जनिर मस्मायजुस्तस्मादशायत ॥ क्र 1०1९०९ श् रू हद बस्माप्यो-पातक्षत्‌ थरुर्वश्मादपाकपन्‌ । सामानि यरद ऐमास्यथवी3गिरसों मुखम्‌ ॥ ये ३०७२० + दैशविश दे 11१३१




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