जैन दर्शन | Jain Philosophy

Jain Philosophy by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(१७) तब रु कफ ऐती अपरय हूं । और कभी ययाथे भी होती हैं परन्तु हम चर बी उनरर भगोप्ता नहीं रख सकते हँ । यथाथ ज्ञान तो उसे कह सके दे मिसे आात्पाने बारिरी किसी भी वस्तुकी सहायता दिये पिना प्राप्त फिंदा ऐ । मोकदो नीवका अथवा मोझे सिसका ऋत निकट हो उसका जमया मानसिंक नेतिक और आस्मिक पार्यिता जिसकी पूर्ण हो एस जावका न सास झाने बाहला सकता छू | भें आत्मा जन इस स्पितिकों प्राप्त करता ६ तंत्र यह सब कु जानदा देता हु । अमीत सपेज् और सवदर्शी होता हैं । बहू से सर्पददीपना दियदा देता ऐ कि आत्मा जाप आपको भी देखता है। मित दशाएं आत्मा सर्द और जनन्त सुखमव ऐता हैं बह आा- र्माईी उंचीमें ऊन 1 ए। गर्योक्ति संह्कतमें हम थे तीन द- स्तुए देतसे एं अक्षय अतय अक्षय । परन्तु ऐसी अक्षय स्थिति युद्ध आात्गाफा एम नि नहीं हर सकते एं। कारण जत वर्णन रमेवाला शपनेह्ों अपूर्ण मानता हैं तत्र यए अनन्त दशायाछे आत्मा- का सम्पूर्ण गपिप किस प्रकार चणन कर सकता ४ 2 इसल्ये ऐसी निपतियाऊं सात्माका हम जो पणणन करते हैं उसमें चाहे नितना अभिक कहा गया | र्न्त परण गहीं होता हूं। एम उसमेंक्री चाें छोट देखे हैं । अपन में शितने पिनार उत्पन्न ऐति एं जब एम उन्हें ही ठीक ठीक वर्णन नहीं कर सकते मं तत्र आत्मा कि जिमका वीर और ज्ञान अनन्त ऐता है उसका पणन कैसे कर सकते 7 आत्मा और नगतकी स्पितिका मेनियेनि इसी सिद्धान्त (पॉइन्ट ) पम्याम किया है और दूपीते पे बहुत दी उत्तम तत्न निकालसके न्कबेड़ि गए न डचा




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