व्याख्यान - दिवाकर पूर्वाद्धर्म | Vyakhyan- Divakar Purvardham

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Vyakhyan- Divakar Purvardham by कालूराम शर्मा - Kaluram Sharma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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# 'घर्म ७ ष्] घारणाद्धममित्यादुर्धर्मो घार पते प्रजा: । यत्स्याद्धारणसंयुक्तें स घ्मे इति निश्वय: ॥ इसमें घारणा शक्ति है, प्रजा इसको घारण करती है, धारणा को लिये इुये होने से इसका नाम धर्म है । धर्म का अनुवाद अन्य किसी मापा में हो नहीं सकता और यदि कोई करे तो फिर उस अनवाद में धर्म शब्द का च्यापक अथे नहीं आता | कई पक मनुष्य धर्म का अर्थ रिली- जन और मजदव करते हैं किन्तु ये दोनों ही अर्थ धर्म के अर्थ को घ्रकाशित नहीं करते । र्लीजन ओर धर्म में चड़ा अन्तर: है (१) स्लिजन किसी मदुप्य का चलाया हुआ दोता हैं और घर्म प्रति सिद्ध है। (२) रिछोजन मनुष्यों में ही होता है; धर्म मनुष्य, पश, पक्ती, जड़, चेतन्य सब में रहता है। (३) रिलीजन के न रहने पर कोई क्षति नहीं किन्तु धर्म के न रहने पर धर्मी का नाश हों जाता है । उदादरण के लिये अग्नि को देखिये । अग्नि मैं दो धर्म हैं उष्णता और प्रकाश, जब तक ये दोनों धर्म अग्नि में हैं तब तक अग्नि की सत्ता है यदि ये दोनों धर्म अग्नि मैं से सिकल जावें तो फिर अग्नि--अर्नि नहीं रहता, राख चन जाता है | मनुष्य में दो प्रकार के धर्म होते है कुछ शारीरिक धर्म और कुछ मनुष्यता के धर्म । यदि मनष्य में से मनुष्यत्व घर्म नाश हो जावे तो फिर वह मनुष्य नहीं रहता बिना सींग पूछ का खासा पु चन जाता है । इसको भर दरिजो छिखते हैं--




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