भारतीय दर्शन परिचय भाग - 1 | Bharatiy Darshan Parichay Bhag - 1

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Bharatiy Darshan Parichay Bhag - 1 by प्रो. श्री हरिमोहन झा - Prof. Shri Harimohan JHa

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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मारतीय दर्शन परिचय १३ धाःरस्पायन-भाष्य में सुवान स्थान पर सू्ों की व्याप्या में श्लोकपद सिद्धान्त भी पाये जाते हें । यट लक्षण वात्तिक प्रस्थों का है। इससे जान पडता है कि वात्स्यायन के पृव॑ से ही गौतमीय न्याय पए चाद-विवाद की परिपादी प्रचलित, थी, और विवादारुपद विएयों पर आचायों ने अपने अपने सिद्धान्त स्थिर फिये थे, जिनका उद्धरण भाष्य में पाया जाता है । वात्स्यायन ने अपने भाष्य में पतञ्ञलि फे महाभाष्य तथा कौटिए्य फे श्र्थशासतत्र से भी उद्धरण दिये हें । इन्होंने जगह जगह पर बोद्ध दाशंनिक नागाझुन फे आक्षेपों का भी उत्तर दिया है | इसले जान पडता है कि भाष्य की रचना नागार्जुन फे बाद हुई है। और भाष्य में बौद्धमत का जो खण्डन किया गया हे उसका प्रत्युत्तः दिल्‍नागाचाये ने दिया है । इससे सूचित द्वोता है कि वात्त्यायन नागाहुन से पीछे ओर द्डिनाग से पहले हुए थे। नागार्जुन का समय प्राय ३०० ई० और दिडनागाचार्य का समय ५०० ई० फे लगभग माना जाता है। इसलिये अधिकतर विद्वान वात्त्यायन-भाष्य का स्चना-काल ४०० ई० फे आसपास फायम करते हैं । चात्श्यायन के अनन्तर जो सबसे महत्त्वपूर्ण न्यायप्रन्थ प्रणीत हुआ, वट उद्योतकर का ज्यायवातिक है। भाष्य पर दिडनागाचार्य ने जो आक्षेप किये थे उनका वात्तिककार ने अच्छी तरह नियकरण किया है । दौद्धों और नैयायिकों के विवाद का इतिहास बड़ा ह्वी मनोएंजक हे। गौतम ने न्याय॑- सूत्र की स्चना की । बीद्ध दार्शनिक नागाऊँन (३०० ३०) ने उसमें दोष निफाले। बात्स्यायन (४०० ई० ) ने अपने भ्ाष्य में उन दोपों का उद्धार क्षिया । दिदनागाचाय (४०० ई०) ने चात्स्यायन की भूलें दिखलाई । उद्योतफर ( ६०० ई० ) ने अपने थार्सिक म॑ उनका जयाब दिया। धर्मकीकि (७०० ई० ) ने अपने न्यायविन्दु नामक पथ में वात्तिसकार का प्रत्युत्त किया। धर्मोत्तर ने न्‍्यायविस्दु पर दीका की रचना कर दिडनाग और धर्मकीत्ति का समथन किया। तब उद्भद विद्वान बाचस्पति पिश्व ( ०० ई० ) ने न्यायवात्तिक-तातपय-टीका की रचना फर बीद्ध आक्षेपों का खडन करते हुए स्याययात्तिक का उद्धार फिया। जैंसा ये स्व॒य फहते हँ-- इच्छामि किमपि पुण्य दुस्तरकुनियन्थप्रमसतानान्‌। उद्योतकरुवीनामतिजरत्तीना समुदर्णात्‌। बाचस्पति मिश्र अद्वितीय विद्वान थे। इनका ज्षम मिथित्षा प्रान्त पे पक प्रतिष्ठित प्राक्मण यश में छुआ था। ये अपूर्य प्रतिभाशाली थे। इनफी प्रगति सभी शास्नों में समान रूप से थी। प्राय ऐसा कोई दर्शन नहीं जिसपर इन्होंने भाष्य अथवा दीका की रचना नहीं की हो। और जिस विपय को इन्होंने लिया है उसीमे अपने प्काएड पाणिडित्य फा परिचय दिया है ।




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