संस्कृत व्याकरण में गणपाठ की परम्परा और आचार्य पाणिनि | Sanskrit Vyakaran Me Ganpath Ki Parampara Aur Acharya Panini

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सम्पादकीय प्राचीन संस्कृत वाहुमय। का तुलनात्मक ओर आलोचनात्मक अध्ययन करने वाले, विशेषरुर/संस्क्रत व्याकरण शास्त्र में रुचि रपते चाले विद्वन्महाुभायों के सन्मुस अपने मित्र श्री पं० कपिलदेवजी साहित्याचयै, एम० ए०, पी एच० डी० धघाध्यापक संस्कृत विश्वविद्या- लय कुर्क्षेत्र का “संस्कृत व्याकरण में गणुपाठ की परम्पण और आचार्य पाणिनि” नाप्रक अन्ध उपस्थित करते हुए मैं पश्म प्रसक्षता अनुभय करता हूँ। हिन्दू विश्वविद्यालय काशी से संस्कृत में ससम्माव एम० ए० परीक्षा उत्तीर्ण करने के पश्चात्‌ मित्र मदोदय ने पीणएच० डी० के लिए संस्कृत व्याकरण से संबद्ध किसी विपय का निर्देश करने के लिए मुझ से कद्दा | मैंने अपने अनुभय के आधार पर पाणिनीय गण- पाठ के शुद्ध संस्करण का सर्वथा अमाय देसते हुए “पाणिनीय गणपाठ का आदशे संह्फरण और समस्त गणपाठों फा तुलनात्मक श्ययन! विपय का निर्देश किया। मैं ज्ञानता था कि यह विप्रय अत्यन्त परिथ्रम- साध्य दे और इस विषय में वही व्यक्ति सफल द्दो सकता दे; जिसे पाणिनीय व्याकरण का पूरे श्ञान होने के साथ खाथ अन्य अनेक विषयों फा परिश्ञान हो और उत्साही तथा धैर्यबरान्‌ हो। मेरे मित्र महोदय में ये सभी बाते खम्मिलित रूप से विद्यमान हैं। अतः वे अनेफ विप्लन- बाधाओं क, भो कि भारतपर्प में साधारण परिस्थिति के अध्ययनार्धी के सन्मुस आती है और विशेषकर संस्कूतश् के सन्मुप्त। उपस्ित होने पर भी धेर्यपूर्वफ अपने कार्य में लगे रहे और उसमें पूर्ण सफलता प्राप्त करके हिन्दू विश्वविद्यालय फाशी से पी प्च० डी० की उपाधि प्राप्त फो 1 पीएच० डी० उपाधि के लिए उपस्थापित उक्त निमन्‍्ध फे तीन भाग हैं। ध्रधम-गणपाठों फा तुलनात्मक अध्ययन, दूसरा-गणपाठ फा आदर्श संस्फरण ओर ततीय-पाणिनीय गणपाठ पर आलोचनात्मक रिप्पणु । इस नियन्ध फा प्रथम और तृतीय माग मूलतः अग्नेज्ती मापा




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