गोमिलीय गृहाकर्मप्रकाशिका | Gomileeygruhakarmaprakashika

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ण॒ ) थ्रोपान लाल वीरेन्द्रकान्तसिंहजो के पुत्र श्रीमान्‌ कुँ० शअ्रततेन्द्र- कान्नलिंह जी के हृदय में स्वपूर्वजों की कीसिंकोम्तुदी को भारत में विकसित रखने की बुद्धि और साहस प्रदान करे जिससे भारत का कव्याण हो । गोमिलगूहासूत्र सामचेद की कौथुमी शाखा का श्हासूत्र है जो कोथुमीय शाखाध्यायी द्विज्ञों का जीवन चर्थ्या है। यही गोभिल्ीय - गृह्कर्म प्रका शिका का मोल्निक प्रन्थ है । यद्यपि गोमिलीयगुह्मकमंप्र- काशिका उक्त गृहामसत्र की शीका सी प्रतीत होती है, परन्तु वास्तविक उसकी टीका नहीं हे । गाोमिलगृ असूत्र में प्रतिपादित कर्मों की पद्धतियों का समूह है। यद्यपि इसकी रचना शैल्ली से गृहासूत्र की टीकाही का भान होता है परन्तु टीका न होने का उदाहरण भी स्पष्ट है। इस ग्रन्थ का आरस्प “अथ शगशृशझ्ायाकर्म्माण्यु परेक्ष्यामः” सूत्र से नहीं हुआ है । “पश्चाद्वास्तोय्य दक्षिणतः प्राश्था- व्प्रकर्षति” परिधी न्प्य्येके समिलान परणान वा,, इत्यादि सूत्रो का अर्थ इस अन्ध में नहीं पाया ज्ञाता। अतः गोमिलीयशब्कमंप्रका- शिका गोसिलगह्मसूच की टोका नहीं कही जां सकती। हां गोमिल्यहासूच प्रतियाथ दर्श-पूर्णाश्त गर्भाधानसंस्कार आदि विषयों की ही सद्धतियां हैं । अण्का आदि हृत्यों में पशु संशपन का विधान लिखा गया है। यह उठ्लेख चत्तमान समय की भावना के प्रतिकूल है। हमारे पाठक महाशय इस बात पर विशेष ध्यान रकखें कि सामाजिक भावना परि- चर्त्न शील होती है। जिसको आज अपना कत्तंव्य समझती है उसी को कल अकरत्तंव्य भी मानने रूगती है। इसी धारणा के अनुसार पहले यज्ञों में पशु संशपन परम धर्म माना जाता था जिसे आज्न आश्चर्य सा प्रतीत होता है। उक्त विषय में जनता का दो विश्वास है एक तो अपनी धारण को “होता यक्षद्श्विनों छागस्य वपाया०”




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