श्री मत्रनन्दी सूत्रम् | Shri Mantar Nadi Sutram

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Shri Mantar Nadi Sutram by श्री मोतीलाल जी - Shree Motilal Ji

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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श्रीमश्नन्दीसूच्रकी प्रस्तावना ७ “7: - ओओमबन्दीसूत्रकी प्रस्तावना _ : * भगवान महावीरके बाद शास्त्रोंकी सुख्य तीन वाचनाएँ हुईं जो र पाटलिपुत्रीया १ माथुरी तथा रे वालभीके नामसे प्रसिद्ध हैं। न्‍ .._ १ पाठलिपुत्रीया--यह वाचना नन्‍्द राजाके शासनकालमें वीर नि. 5 हल के आसपास पार्टलिपुत्न नगरमें हुई, अतः यह आगमवाचना ओर पाठलीपुत्रीय कहाती है। इस वाचनामें भ्रमण सड़नने ' देवाद्धागणीी पत्र होकर इसिक्षके कारण छिल्ल-भिन्न हुए आग- 'मोंको पुनः व्यवस्थित किये, यह वाचना श्रुतकेवली भंद्रवाहुके समयमें हुई थी । २ साथुरी वाचना--इसके सम्बन्धमें आचार्य श्रीमलयगिरिजी ननदी- सूत्रकी टीकामें लिखते हैं-स्कन्दिलाचार्यके समयमें बारह वर्षका दुर्भिक्ष पडा, उस महान इुर्सिक्षेक समयमें साधुओंको भिक्षाकी प्राप्ति असम्भव हो गई । इससे अपूर्व सन्नाथंका अरहण और पठितका परावतेन प्रायः सर्वेथा नष्ठ हो गया। बहुंतला अतिशययुक्त श्रुतव सी इसीसे विनष्ठ हो गया तथा परिवतन नहीं करनेसे वह अज्ञ-उपाज्ञगत भी भावसे नहीं रहा। वह बारह वर्षका दुशिक्ष . मिटकर जब खुशिक्ष हुआ तब मधथुरामें स्कन्दिलाचार्य प्रसुख भ्रमण सड्डने एकत्र मिछकर जिसको जो याद था उसने वह कहा, इसप्रकार कालिकश्नुत- और पूर्वगतको अनुसन्धान करके सझ्कूटित किया। मंधुरामें यह सड्टूटना हुईं इसंलिये इसको माधुरी वाचना कहते हैं, और वह उस समंयके युगप्रधान स्कन्दिलाचार्यकी मान्य थी व अर्थ- रूपसे - उन्होंनेही शिष्योंकी उसका अनुयोग दिया, इसलिये वह अनुयोग स्कान्द्लाचार्यका कहाता है। दूसरे आचाय इस विषयमें ऐसा कहते हैं-- इशिक्षसे' कुछ भी श्रुत नष्ट नहीं छुआ, किन्तु उस समयमें उतनाही श्रुत रहा था। केवल दूसरे प्रधान अनुयोग करनेवाले आचार्य सभी इसौिक्ष समयमें कालके थास होगये, एक स्कन्दिलाचार्यही रहे थे, उन्होंने इभिक्षके अन्तमें फिर मधुरामें अनुयोग किया, इसलिये यह माथुरी वाचना कहाती है। पाठकोंके अवलोकनार्थ हम वह टीकाका अंश यहां उद्धुत करते हैं-- ४ इह स्कन्दिलाचार्य्यप्रतिपत्ती दुष्षमसुषमाप्रतिपन्थिन्याः तदूगतसकल- शुभभावग्रंसनेकसमारस्थाया दृष्षमायाः साहायकमाधातं परमस॒हदिव द्वादश- वार्षिक दुर्भिक्षम्रदपादि, तत्र चेवरूपे महाते इसिक्षे सिक्षालाभस्याइसम्भवादव- सीदतां साधूनामपूर्वार्थथ्हणपू्वोर्थस्मरणश्रुतपरावतनानि मूलत ण्वापजस्मुः | श्रुतमपि चातिशायि प्रभूतमनेशत्‌। अज्भोपाज्ञादिगतमापे भावतो विप्रणहम्‌, तत्परावतंनादेरभावात्‌ । ततो द्वावशवर्षानन्तरसुत्पन्ने साभिक्षे मधुरापुरि स्कन्वि-




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