रस गंगाधर | Ras Gangadhara

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Ras Gangadhara by 'परिमल', प्रयाग - 'Parimal', Prayaagपंडित श्री बद्रीनाथ झा - Pandit Shri Badrinath Jha

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about पंडित श्री बद्रीनाथ झा - Pandit Shri Badrinath Jha

Add Infomation AboutPandit Shri Badrinath Jha

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
2 प्रस्तावना पुष्टि वामन! के सन्दर्भ से भी होती है। उन्हों ने कहा है कि 'अलक्भार-थुक्त होने से काव्य का अहण ( ज्ञान ) करना चाहिये । सौन्दर्य को ही अलझ्भार कहते हैं। अलद्बार पद भावसाधन होने से अलडकृतिं-परक है। करणपव्युत्पत्ति मानकर इस पद का प्रयोग यमक, उपमा भादि में भी होता है। वह सौन्दर्य काव्य में दोष का त्याग और गुण, अछक्वार आदि के ग्रहणसे उत्पन्न होता है ' वस्तुतः 'अलझ्वार शास्त्र! के नामकरण का बीज यह प्रतीत होता है कि दण्डी, भामह, भट्टोदह्टूट, रुद्रअ और वामन पर्यन्‍त जिन प्राचीन आचार्यों ने अल्झ्ञारशाखसम्बन्धी प्रवन्धों की रचना की वे सब के सब ध्वन्यमान अर्थ को वाच्याथीपकारक मानकर अलक्कार-कोटि में ही समाविष्ट किये । अत एवं उन लोगों ने काव्य में अलद्जार को ही सवे-प्रधान माना, फिरतो 'अ्रधान के मैनु- सार व्यवहार होते है, जैसे अन्य छोगों का आवास रहने पर भी मलप्रधान आम में “मछग्राम! ऐसा व्यवहार होता है? इस सिद्धान्त के अनुस्तार उन छोगों के थुग में प्रकृतशाल्र का 'अलकार- शास्त्र! यह नामकरण प्रमाणथुक्त ही था। बाद में “घ्वन्याठोक? के निर्माता आनन्दवधेन! ने अनेक युक्तियों से काव्य में ध्वन्यमान अर्थ की प्रधानता स्थापित कर दी, तदनन्तर भावी आचार्यों ने ध्वन्यमान अर्थों में भी रस आदि असंलक्ष्यक्रमव्यज्ञर्यों के ही सवे प्रधान होने की व्यवस्था दी, तदनुसार यथ्पि आज के युग में प्रकृतशासतत्र का नाम उक्त युक्ति से 'घनिशासल्र! अथवा 'रस- शास्त्र! होना चाहिये, तथापि ऐसा हुआ नहीं, क्योंकि हम भारतीय सदा से रूढ़ि के भक्त रहे, फिर यहाँ एकबार हो उस भक्ति को केसे सुा बैठते ? फलतः हम आज भी प्राचीन परम्परा के अनुरोध से काव्य-नियामक प्रवन्धों के विषय में 'अलक्वाए-शास्रः इसी नाम से व्यवद्यार करते हैं । अलक्भारशाश्ष में उत्तरोत्तर विकास इस अलड्जारशास्र में जितनी गम्भीर आलोचनाय की जाती है, उतनी अधिक ममेस्पशिता उसमें उत्तरोत्तर उत्पन्न होती है और उसके फलभूत काव्य में भी अधिकाधिक उपादेयता सम्पन्न होती है । प्रायः सभी समालोचक एक स्वर से इस बात को स्वीकार करते हैं कि अखिऊ भाषा साहित्यों का उद्धमस्नोत वह संस्कृत वाढमय ही है जिसका साहित्य अनादि है ओर अन्तस्तलस्पशी साहि' त्यकारों के गम्भीरतम विवेचनाओं से क्रमशः मार्मिकता की चरम सीसा पर पहुंच चुका दै। प्रायः प्राचीन काछ से आज तक सभी आहलढडद्भारिकों ने अपने अपने निंबन्धो सें इस बात का मार्मिक विचार किया है कि 'रुचिरा्थंक शब्दों का समुचित सन्निवेशरूप काव्यः किन किन साधनों से सहृदयों के हृदयावर्जन करने में अधिक सक्षम होगा । स्थूल रूप से उनके विचारों को तीन भागों में विभक्त कर सकते हैं :-- (१ ) एक युग वह था, जब विच्छित्ति-विशेषवती पद-रचना को ही आलड्भारिक छोग काव्य की आत्मा मानते थे, और काव्य के शरीरस्थानीय शब्द तथा अथ॑ में परिछक्षित होने वाके १. काव्य आश्यमलझ्भाराद , सौन्दय॑मलक्कार: । अलंकृतिरलकूरः। करणब्युत्पत्या पुनरणकार शब्दो यमकोपमादिषु वर्तते | स दोषयुणालद्वारहानोपादानाभ्याम्‌ ।? ( अलक्कारसूञ्ञ ) २. 'प्रधानेन हि व्यपदेशा भवन्ति, मछग्रामादिवत्‌ ।! ३. 'रौतिरात्मा काव्यस्य”। ( वामन.)




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now