आचार्य विजय वल्लभ सरि ग्रंथ | Acharya Vijay Vallabh Suri Smrak Granth

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Book Image : आचार्य विजय वल्लभ सरि ग्रंथ  - Acharya Vijay Vallabh Suri Smrak Granth

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ऐ. ग्ञाप६४। ! 99घ१ - ब््यीत मुशछ॑ 58, जात्म- ब्षीत उगछुणती, सथारा गम भारण भाडे, पथदशं5 थर्ण रेती, अद्रशनी 9. थुष् भरेणर, क्षण क्षण तेंग्े थभं$, ग्टनू - भन्‌ - गशु खतर - खाडाशे धिवथि श्वृ३्पे. ६भें खापध्शिणि. परणी. कषीषां, नवयुगनां.. सेषाशो | तेथी तो ते बानरतवी. भुध्योी. मी फब्ननो: “जुचण घनना ढगक्षा 8५२ धरम-धष्य नि ४२३, ८८८/यू व्यय? ना भावी नाराथयी खात्म- तेप्ट नि अथटे | शुपा थी पीडता ब्य्नने, डी शान शा जपनु४ ६ जथी सिजाता. भानपते सुड्ितिवु शु॒ सपवु १! समाप्ण्नी.. अलेड. भानपी छणे रोटी फपाशे, थारे.. ओेव ऐैथु. साथा. घर्म भारणे ब्यरों! वि- पमेत नाम कह बाझमा शीदते रायो अषभऊु५... शा. गरउलेस्ता. पतुणमा थे. नायो* जभृूणाभा. पसीने. शीहते भमदछावीर नाभ पुश्धरो “भछापीर तो उबण ब्हैनोना? -- सेतु शी६ भनावी भष्डपीरना. सतानी.. सोओभे. खावी. छाथ मिक्षापी, जे: सवार. भदावीरनी सप्शोी रहो... जवब्य॑पी, पछी छझुणों ॥ सप्री छाप शासनता रसिया थार, सय- प्रेम - महिसाना गीतों सारी इनिया गाशे ?! जाम चढापी वध्शुभ?र ते तो उस्शापती १श, द्रप्प क्षेत्र ने आण-लसावने सत्वर थीधा पिछाश, समभाग्ट्ना रोभोनी 6 तो भरी थिश्ल्‍लसा शीपी, खात्म- शुद्धि अरवाने आए... भछागीपधि धीपी ३६८ विष्श्यवत छुल/ नाभ सभोने जरूर अरणु सापो, तारी प्रेम- सुवास सद्ध थे. घटवर भाडें. यापी | शांतिक्षत्ष ी० १0७




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