रसगंगाधर [खण्ड ३] | Rasgangadhar [Vol. 3]
श्रेणी : अन्य / Others
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
58 MB
कुल पष्ठ :
1218
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)(५ 8७ )
शसके वाद पूर्वोक्त प्राचोन-नवीन के मतभेदों की वात विशएद रूप में कटी गई है। इसो के
नध्य में प्रसदवश व्याकरणशालोय विवाद ( आख्यात ज््वा है ? उतका अर्थ क्या है? शाब्ददोध
में प्रधानता किसको होतो है ? 'भावग्रधानसाल्यातम्, सच््वप्रधानानि नासानि? इत्यादि
वाज््वों के क्या तालव॑ है ? इत्यादि ) उठावा गया है। इत्तो क्रन नें दोक्षितोक्ति का भो खग्डन
किया गया है। अल्क्ारतर्व॑त्वकारश्त उद्मेशझ्ाविचार कौ समोझा भोक्की गई है। अन्त में
अपना विशिष्ट नत दिल्वलावा गया है। अपना नत ल्जि लेने के दाद इत्यल स्वगोत्रकलहेन!
ददकर इस प्रसद्व को कनाप्त किया गया है। इसके अनन्तर उत्ह्ेज्षा-ल्छा-निविष्ट पर्म का
विल्षग अपने ढक से अतिउुन्दर किया गया दै जिसने कहा गया है कि पर्म कोई स्वत'साधारण
( उपमानोपनेयोपनवृत्तो ) होता है और कोई उपाय द्वारा त्ाधारनण वनावा जाता है | ताधारण
वनाने के उपाय स्थलनेद से रूपक, इलेष, अपडृति, विन्वश्नतिविन्वनाव, उपचार और अनेदा-
ध्यवताव हो कऊते है । इन सभो वयार्यों का त्पष्टोक्रण उदाइरस द्वारा किया गया हैं ।
कान्यात्मा
अव वयपि इस दितीवानन के उत्म्ेक्षाल्ारान्त द्वितीव भाग के प्रतिपाथ विषयों क्ला दिवे-
चन लमाप्त है और इसके ताथ हो प्रस्तुत प्रस्तावना को नो समाप्ति होनों चादिए। पर आरन्न-
भाव में हत प्रतिश् के अनुस्तार एक अति मावश्यक्त अथ च ज्यापक्न विषय ( जो इस ग्न्य नें प्राति-
स्विकरूपेण विवेचित नहीं हो सकता हैं) का विवेचन अवशिष्ट रह गया है। वइ पविपरव
है काब्यात्ना ।
काव्याइनूत अनेक तत्तों नें वह कौन-सा तक है जो सबसे प्रधान है--जिसे आत्म-न्पद
प्रदान किया जाबय--जिसके बिना काव्यत्व रुत्ताब्ठ नहीं हो तके, इस प्रश्ग का त्तमाधान देना
अल्झ्ारशालियों के ल्यि परनावश्वक था । पर इस प्रश्न का समाधान देने में अल्झारशाब्मव्तक
जाचारय॑ एकमत नहों हो सके । वह ऐकनत्व का अनाव कुछ तो ऋनिक विक्लासवाद-ल्िद्धान्त
को तत्वता के कारग डुआ है, कुछ इष्टिझोननेद के कारण भी। अस्तु उक्त प्रश्न क्ष ऊते प्राचोन
तनाधान रत? शब्द से किया गया है--वबह स्वत्तन्नत कथा है, क्योंकि आज परिचित अल्कार-
शालिवों में भरत अथवा अज्निपुरानकार हो सर्वपुरातन आचार्व है। जो रतवादों है, वे काव्य
नें त्दसे मुख्य तत्त्व (रस? को मानते हैं, अत- उनके हिलाव से रस? हो काब्वय की आत्मा ठदरता
है। दयपि अतिपुरान को इतनौ श्राचौनता विवादयल्त है, तथापि नरतहृनत नाव्यशाल को
परन प्राचीनता क्तकलालेचक-ल्वीक्न्न-चलु है! दूस्तरा उत्तर उक्त प्रश्न का सल्कारः इच्द ते
किया गया अतीत होता है, क्योंकि नरत के वाद सबसे पहले आचार्व नारइ का हो नाम
हम इतिहात्त नें पाते है जो अछक्ारवादों हैं। भानइ अछझ्ढलार को हो सर्वश्रेठ, सर्वप्रधान काव्य-
उत्त अदौकार करते हैं ।
वद्यपि वह कुछ विचित्र सा लगता हद कि “रतः जैसे सूझ्मठत््व पर पहुँच कर फिर “अल्हझ्ारः
जैसे स्यूल तत्त्व पर क्षेमे साहत्यततार लौट बावा, पर मनन करने पर वह विचित्रता उतनो
आश्चवंजनक नहीं रइ जातो क्योंकि प्राचोन रत्तसिद्धान्त नाव्य तकू सोमित ता था, नरत ने
अपने नाट्थ्यार्र में नाव्य का हो विचार दिया है, छरना जमोष्ट भो था, जो “नाय्य्शारू? इस
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