उपासकाध्यान | Upasakadhyayana (somadeva Suri)

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Upasakadhyayana (somadeva Suri) by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१०६ सोमदेव विरचित [ कल्प २१, इलो० “२२५ के संस्कारसे सम्यग्दशनकी प्राप्ति हो जाती है। उक्त तीन लब्धियोंसे युक्त जीवके प्रतिसमय विशुद्धताके बढ़नेसे आयुके सिवा शेष सात कर्मोंकी जब अन्तःकोटाकोटी सागर प्रमाण स्थिति शेष रहे तब स्थिति और अनुभागका घात करनेकरी योग्यताके आनेको प्रायोग्यलव्धि कहते है | उसके होनेसे वह जीव अप्रशत्त कर्मोंकी स्थिति और अनुभागका खण्डन करता है । इसके बाद करणलब्धि होती है। करण परिणामको कहते हैं । करणलू्धिमें अधःकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण नामके परिणाम होते है | इन तीनोंमें से प्रत्येकका काल अन्तमुहते है किन्तु एकसे दूसरेका क्लाल संख्यातगुना हीन है अर्थात्‌ अनिवृत्तिकरणका काल सबसे थोड़ा है | उससे अपूब्- करणका काल संख्यातगुना है । उससे अधःअवृत्तका काल संख्यातगुना है | जहाँ नीचेके समयवर्ती “ किसी जीवके परिणाम ऊपरके समयवर्ती किसी जीवके परिणामसे मिरछ जाते है उसे अधःप्रवृत्त- करण कहते है । आशय यह है कि अघःकरणको अपनाये हुए किसी जीवको थोड़ा समय हुआ ओर किसी जीवको बहुत समय हुआ तो उनके परिणाम संख्या और विशुद्धिमें समान भी होते हैं। इसीलिए इसे अघःप्रवृत्तकरण कहते हैं। जहाँ प्रतिसमय अपूर्व-अपूर्व ही परिणाम होते है उसे अपूर्वकरण कहते है। आशय यह है कि किसी जीवको अपूर्वकरणकों अपनाये थोड़ा समय हुआ और किसीको बहुत समय हुआ। उनके परिणाम बिलकुछ मेल नहीं खाते। नीचेके समयवर्ती जीबोंके परिणामोंसे ऊपरके समयवर्ती जीवोंके परिणाम अधिक विशुद्ध होते है। और जिनको अपूरवेकरण किये बराबर समय हुआ है उनके परिणाम समान होते मी हैं. और नहीं भी होते । जिसमें श्रतिसमय एक ही परिणाम होता है उसे अनिवृत्तिकरण कहते है | यहाँ जिन जीवोंकी अनिवृत्तिकरण किये बराबर समय बीता है उनके परिणाम समान ही होते है और नीचेके समयवर्ती जीवोंसे ऊपरके समयवर्ती जीवोंके परिणाम अधिक विशुद्ध ही होते हैं । इन तीनों करणोंमें जो अनेक काये होते हैं उनका वर्णव श्री गोमइसार जीवकाण्डमें और लब्धिसारमें किया है, वहाँसे देख लेना चाहिए। यहाँ इतना बतछा देना आवश्यक है कि अनिवृत्तिकरणके कालमें से जब संख्यात बहुभाग बीतकर एक संख्यातवों भाग प्रमाण काल बाकी रह जाता है तब जीव मिथ्यात्व- का अन्तरकरण करता है । इस अन्तरकरणके द्वारा मिथ्यात्वकी स्थितिमें अन्तर डाल दिया जाता है। आशय यह है कि क्रिसी भी कर्मका प्रतिसमय एक-एक निषेक उदयमें आता है और इस तरह जिस कर्मी जितनी स्थिति होती है उसके उतने ही निषेकोंका तॉता-सा छगा रहता है । जेसे जेंसे समय बीतता जाता है, वेसे-वेंसे ऋमवार निषेक्र अपनी-अपनी स्थिति पूरी होनेसे उदयमें आते जाते है । अन्तरकरणके द्वारा मिथ्यात्वक्ी नीचे अन्तमुहत प्रमाण स्थितिवाले निषेकोंको ज्यों-का-त्यो छोड़कर उससे ऊपरके उन निषेकोको, जो आगेके अन्तमुहतेमें उदय आयेंगे, नीचे वा ऊपरके निषेकोंमें स्थापित कर दिया जाता है और इस प्रकार उस अन्‍्तमुंह॒त प्रमाण कालकों ऐसा बना दिया जाता है कि उसमें उदय आने योग्य मिथ्यात्वका कोई निषेक शेष नहीं रहता । इस तरहसे मिथ्यात्वकी स्थितिमें अन्तर डाछ दिया जाता है । इस तरह मिथ्यात्वके उदयका जो प्रवाह चला आ रहा है, अन्तरकरणके द्वारा उस प्रवाहका ताॉँता एक अन्‍्तमुहतेके लिए तोड़ दिया जाता है और इस प्रकार मिथ्यात्वकी स्थितिके दो भाग कर दिये जाते हैं। नीचेका भाग प्रथमस्थिति कहलाता है और ऊपरक्ा भाग द्वितीयस्थिति। इस प्रथमस्थिति और हितीय- स्थितिके बीचके उन निषेकोंको, जो अन्तमुंह॒तंकालमें उदय आनेवाले है, अन्तरकरणके द्वारा




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