दैवत - संहिता भाग - 1 | Daivat - Sanhita Bhag - 1

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अभिदवेषबत। का परिचय | (२५) हस्तपादहीन गुह्य अग्नि । स॒ जायत प्रथमः परत्यास महो बुध्ने रज्लो अधस्‍्ययोनी। अपादशीर्षा गुहमानो अन्तायो- युवाने वृषभस्य नीछे॥११॥ प्र शर्ध आत प्रथम विपन्य ऋतस्य योन। दुषभस्य नीले । स्पाहों युवा वषुष्यो विभावा सप्त प्रियासोंइजनयम्त घष्णे ॥१२॥ (६३७-३८३ ऋ० ४।१) ४( स॒ प्रथम' ) वह पहला ( पस्त्यासु जायत ) प्रजञाओं में हुआ है । तथा वह (€भर्प्र महः रजस: घुल्ले योनी ) इस महान अतरिक्षके मूल स्थानमें होता है| यह (भापाद- शीर्षा ) पांव सिर आदि अवयवोंसे रह्तित (अतः-गुह मान: ) अदर गुप्त हे। (बृबरभस्थ नीडे) वीय॑युक्त पुरुषके स्थानमें (भा योयुवान:) संघटनाका कार्य करता है, संमेलन का काये करता है।' इस मन्न्नका का तात्पर्य यह है कि, सब देवोंमें भवद्यंत प्राचीन तथा सबसे पहिला यह देव है, इस महान्‌ अवकाशसें इसका स्थान है। न इसको हाथ हैं ओर न पाँव, न लिर भादि अवयव है। भर्थात्‌ यह अशरीरी निरा- कार हे ओर सबके अदर गुप्त अथवा व्याप्त है। शरीररहित होनेके कारण ही यह निरवयव होनेसे सबसें व्याप्त ओर अब्यक्त है । बलवान मनुष्यके अद्र यह संभिश्रणकरा कार्य करता है, अर्थात्‌ निबंछके अद्र यह भेदन का कार्य करता है। 'नायमात्मा बलद्दीनेन लभ्यः' (सुंडक० ३२४) यह आत्मा बलद्दीनको प्राप्त नहीं होता, यह तस्वज्ञान का सिद्धांत ही है। निश्चयपूर्वक दृढ जनुष्ठानसे ही इसकी प्राप्त होती है ओर जिस समय इसकी प्राप्ति होती है, डस्त समय उस मनुष्यक्की शक्ति, शोभा ओर योग्यता बढ जाती है । ८( ऋतस्य योनों ) ऋतके मूछ कारणमें ( बृषभस्य नीछे ) बलवान के स्थानमें ( प्रथम जिपन्‍य ) पहले ज्ञानी को ( हर्ष प्र भाते ) तेज और बल प्राप्त होता है| यह (स्पाई:) स्पृह्णीय, प्राप्त करने की इच्छा करनेयोग्य, युवा ( वुष्यः ) देहघारी, (विभावा) प्रभावयुक्त है। (शृष्णे) इस बलवान्‌ के किये ( स॒प्त प्रियासः ) सात प्रिय देव ( अजनयंत ) उत्पन्न करते हैं ।' इस मन्त्रके अन्य शब्द पूर्व केखके अनुधार सुगमतासे ध्यानमें आा सकते हैं, इसलिये उनका विभेष वणन करने की २९ ) यदां आवश्यकता नहीं है | पूव मनत्रमें ' अ-पाद-शीषधे! हस्तपाद आदि अवयवहीन है, ऐसा वर्णन हे, परन्तु यहां हस मन्त्रमें 'धपुष्यः” शरीरधारी है, ऐसा है। यद्यपि इसमें परस्पर विरोध दिखाई देता है, तथापि विचारकी दृष्टिसे इसमें कोई विरोध नहीं हे । क्योकि यह आस्साग्ति यद्यपि वस्तुतः शरीररहित है, तथापि इस दरीरको धारण करने वाला यही है | इसलिये दोनों शब्द हुस आस्मामें सुसंगत होते हैं। इस आत्मासेही इस शरीरमें तेज, बल, वी जादि होता हे, इसीलिये इसके विषयमें सब ही प्राणी हार्दिक प्रेमभाव रखते है, सबको ही यद्द प्रिय हे । इस मन्त्र में “ सात प्रिय देव इसको प्रकट करते हैं,” ऐसा जो कहा है, इसका स्पष्टीकरण इस छेखके अतिम भागमसें होगा। वहांही इसकों पाठक देख सकते है । ( सप्त ) सात संख्या का महश्व क्या है, इसका पता वहांही पाठक री छग सकता है। अस्तु | हस प्रकार इस गुह्य अग्निका वर्णन वेदमन्त्रा्मे है । इससे स्पष्ट होता हे कि, यह भास्मागित छृदयाकाश्ें सब प्रजाओंके अदर गुझ् रीतिसे विराजमान है। तास्पये, “क्रगित! शब्दसे केवल ' आग! का ही भाव नहीं छिया जाता, परन्तु प्रकरणानुलार अन्य अथ भी इस शब्द ब्यक्त होते हैं। इसका अब और एक बिलक्षण रूपक देखिये- (२६) वद्ध नागारिक । अधा दि विध्वीडबो5सि प्रियो नो अतिथि! । रण्वः पुरीव जूर्यः खुनुने त्रययाय्य:॥ (९०८, ऋ० ६।२|७ ) ८( क्या हि) जार तू (न; प्रिय/ शतिथि३ ) हमारा प्रिप्न अतिथि तथा ( विक्षु इंडबः भर्ति ) प्रजाओंमें पूजनीय है। जेसा (पुरि जू4: रण्त्र. इव ) नगरीसें ब्ृद्ध पुरुष रमगीय होता है, अथवा (सूनु न प्रययाय्त्र ) जैसा पुत्र सरक्षणीय होता है । ! नगरीमें जो सभ्रसे वृद्ध बुजुर्ग होता है, वह सबको वेदनीय होता है | इसी प्रकार यह इस शरीररूप। नवद्वार पुरीम बहुत समय से रहनेवाला सब्रसे प्र।चीव पूपर॑ज होनेसे सबको पूज्य है | तथा घरमें जेना बालक सबको संरक्षणीय होता है, बेसा यहां इस शरीररूपी घरमें यह बाऊकवत्‌ ही है और इसलिये इसका सेगोपन करना ओर इसकी सब शक्तियोंका विकास करना सबको उचित दे




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