क्षत्रचूड़ामणि | Kshatrachudamani

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Kshatrachudamani  by वादीभ सिंह - Vadibh Singh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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& काष्ठाज़ूर ने उसे बधा हुश्ला देख कर भी मार डालने की श्राज्ञा दें दी | तव जीवन्धर ने यक्षेन्द्र का स्मरण किया ! वह तुरत्त 'वहा श्रायां भौर जीवन्चर को अपनी विक्रियाणशक्ति से चन्द्रोदय पर्वत पर ले गया | पहा उसमे क्षौरसागर के जल से उनका श्रभिपेक किया श्रौर इच्छा नुंकल तपधारण करने सनोमोहक गान बाने तथा हालाहल विष को भी दूर करने में शक्तिणाली तीन मत्र भी उन्हें दिये । श्रवधिज्ञान से जान कर उसमे यह भी कहा कि आप एक वर्ष में ही राजा हो जावेंगे श्रीर राज्यसुख का भोग कर भ्रन्त में मोक्ष प्राप्त फरंगे! जीवल्वरफुमार घूमते हुये एक घन मे श्राये। धहा चारो और लगी हुई दावाग्नि से जलते हुये हाथियो को देख दयाद्र' हो उन्होने सदय हृदय से जिनेन्द्रदेव का स्तवन किया, जिसके प्रभाव से उसी समय भेघवृष्टि हुई जिससे उन हाथियों की रक्षा हुंद।...' वहाँ से रवाना होकर अनेक तीथं स्थानों की वन्दना करते हुए चे घन्द्राभा नगरी मे पहुचें ' वहा के राजा घनमिन्न की सुपुत्री पद्मा को साप ने काट खाया था ! जीवन्धर ने श्रपते मत्रे के प्रभाव से उसे तत्काल जीवित कर दिया । तव राजा मे बहुत सन्मान कर श्राघा राज्य दे प्रपणे उस पद्मा नामक कन्या का उनके साथ विवाह कर दिया। ' द# घष्ठ लम्ब हू8... जीवन्धर स्वामी कुछ दिन चन्द्राभा नगरी भे रह कर घिना कहे ही वहां से -चल' दिये । मार्ग मे भ्ननेक तीर्थस्थानों की बन्दना करते हुये वे एक तपस्वियों के श्राश्रम मे पहुंचे । घहा पर उच्होने तपस्बियों को मिथ्या तप करते हुये देखा, तव यथार्थ तप श्र सच्चे धर्म का स्वरूप समझता कर उन्हे जिनेन्द्रप्रशीत धर्म मे प्रवृत्त किया | इसके बाद वहाँ से रवानां होकर वे दक्षिण देश के एक सहस्रकट चैत्यालय मे पहुँचे । वहा पर जिनमन्दिर के किवाड बन्द देख कर बाहर से ही जिनराज की स्वुति करने लगे । उस ज़िनसन्दिर के किवाड बहुत समय से बन्द थे, वे उनकी स्तुति के प्रभाव से तत्काल खुल गये ।




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