सांख्यायनतन्त्रम | Sankhyayanatantram

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Sankhyayanatantram by फतह सिंह - Fatah Singh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भूमिका भारतवर्ष एक धर्मप्रधान देश है। यहाँ श्रनादिकाल से निगम एवं झागम- सम्मत घ॒र्म की ही स्थिति प्रधान रूप मे प्रचलित रही है । मन्त्रव्नाह्मणात्मक वेदों को निगम श्रथवा छन्‍्द नाम से वामन, भट्टोजी दीक्षित आदि महापण्डितों ने श्रभिहित किया है--'नितरामत्यन्त निर्चयेन वा ग्रच्छन्ति श्रवगच्छन्ति (जानत्ति) धर्ममनेनेति निगमइछन्द.' अर्थात्‌ [ रन्तर अथवा ' निशचयपूर्वक जिसके द्वारा धर्म को जानते हैं उसे निगम श्रर्थात्‌ छन्‍्द कहते हैं। परा श्र अपरा-तामक विद्याओ्रों' की-स्थिति भी इसी मे निहित है भ्रतः इसी निगम को धर्मशास्त्र के आचार्य मनु ने विद्या एवं धर्म का स्थान माना है “ेदप्रणि- हितो धर्मो छह्यमथमंस्तद्विपय्यंयः' श्रर्थात्‌ वेदविहित कार्य हो धर्म एवं तदितर कार्य श्रधर्म है। याज्ञवल्क्य ने भी पुराण, न्याय, मीमांसा एवं धर्मेशास्त्रस्वरूप श्रद्धों से युक्त वेद को धर्म एव चौदह विद्याओ्रों का स्थान बतलाया है-- 'पुर णन्यायमीमासाधमेशास्वाज्रमिश्रविता:। .' + वेदा. स्थानानि विद्यानां धर्मेस्य च चुतुददंश । त्रिकालदर्शी महषियों ने सम्पूर्ण शब्दराशि को श्रागम-निगम-भेद से दो भागो मे विभकत किया है । क्‍यों कि प्रकृतिप्तिद्ध नित्यशब्दब्रह्म इन्ही दो भागों मे विभकत है | यद्यपि 'श्रथो वागेवेदं सर्वम्‌/* 'वाचीमा विश्वा भुवनान्यपिता'! श्रादि श्रोतसिद्धान्तो के अनुसार वाक्‍्तत्व से प्रादुभू त होने वाले शब्दप्रपञ्च से . कोई स्थान खाली नही है तथापि स्वर्गंनाम से प्रसिद्ध १४ प्रकार के भूतसगे के साथ प्रधानरूप से भ्रग्तिवाक्‌ भौर इन्द्रवाक्‌ का ही सम्बन्ध है। पृथिवी भ्रग्नि- मयी है श्रोर द्युलोकोपलक्षित सूर्य इन्द्रमय है । पाथिव एवं सौर श्रग्ति श्रच्नाद (अन्न खानेवाले) हैं श्रौर मध्यपतित चानर्द्र सोम इन भ्रग्नियो का श्रत्न बन रहा है । अन्न जब श्रन्नाद के उदर मे चला जाता है तो केवल अ्रन्नाद-सत्ता ही १ दें विद्ये वेदितव्ये परा चवापरा च। (१) परा--उपनिषद्विद्या ।- (२) भ्रपरा-- ऋणग्वेदा दि, । २, ऐतरेयारण्यक० ३।१।६ । ३ तैत्तिरीय ब्राह्मण शायद 1 ४ “पधान्निगर्भा पृथिवी तथा दयौरिन्द्रे णझ गर्भिणी' शतपथब्राह्मण १४।६।७।३० ५ एप वे सोमो राजा देवानामन्न यच्चन्द्रमा' 5 १६४५




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