ऋग्वेद का सुबोध - भाष्य | Rigved Ka Subodh Bhashya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(२) किया जाए, तो वह झ्ीघ्र ही उस बाहुमन पर प्रभाव ढाल सकता है। वेद्किऋषि इस मनोवैज्ञानिक तथ्यसे सलीभांति परिचित ये, इसीलिए उन्होंने वेदोंसें “ सल बोलो, धर्म करो, दान करो, - देंच चन्तो ”” श्ादि विध्यात्मक आाज्ञायें देने बजाए देवोंके गुणोंका वर्णन प्लाकपैक शब्दोंमें किया कि मलुप्योके मनपर उन शुर्णोकी छाप खनायास ही पढ ज्ञाए । यद्दी कारण है कि वेदंसें विधिनिषेध न होकर देवोंकि गृणबर्णन ही क्षधिक हैं। ऋषियोंको यह मनोवैज्ञानिक पद्धति विकक्षण थी | बेदाथके क्षेत्र पव: सभी वदिक ऋचाओंके धर अधिभूत, अधिदेथ, अधियज्ञ, अध्यात्म भादि भनेक्षों क्षेत्रोंमें लगता हे। अधि*ूत शर्य बह है कि जो समाज या राष्ट्रके बांरेसें किया जाता है । लघिदेव छर्य वह हे ज्ञो विश्वके बारेसें क्रिया जाता ह। यश्षसम्नन्धी धर्वकों भपियज्ञ कद्दा जाता है तथा शरीर समवन्धों क्षयंकी संज्ञा ध्यात्म है। इन सभी क्षेत्रोंमें देवताकषोंका कर्थ भी बदल जाता है, यथा- लधिभूतसें शप्नि तथा इन्द्र क्रमशः ज्ञानी तथा क्षत्रियके प्रतोक हैं। सधिदेवसें भौतिक श्षम्ति तथा विद्युतके निर्देशक हैं, अध्या- स्ममें प्राण जीर जोवके प्रतिनिधि हैं। इस ग्रकार इन देवनाओ्ं तथा वेदिक ऋचाओंके भिन्न भिन्न क्षय हो सकते हैं छौर ये सभी क्षय सपने कषपने क्षेत्रसें संगत हूँ । वेदोंके विषय वेदोंके विषयक बारेसे लनेक मतझभेद हैं, चेदोंका विषय ज्ञान मानते हैं. कुछ कमे सानते हैं, तो कुछ उपासना मानते हैं | पर उपासना तथा कर्मकी पृष्ठभूमि नानका माधार न हो तो वे दोनों ही स्व हो जाते हैं । इसालेए देदिक संस्कृतिसें ज्ानको मुख्यता दी गई है। £सीकारण ज्ञानकहाण्डात्मकू ऋग॑वद भी चारों वेद मुख्य माना गया है । तखेद पर हमारे द्वारा किए जानेवाले हिन्दी सुबोध- भाप्यका प्रथम भाग ( प्रथम संढल 2 देससे पूर्च प्रकाशित ४' ही चुका है। उसी साछाका यह दूघरा पुष्परूप दूसरा %।श प्रस्तुत है । इस भागमें दूसरा, तीसरा, चौथा कौर पल्दी दस प्रहार चार सण्डल हैं। इन चार्रों मण्डलोंसें कमे क्त्वा देदता सनेहझ हैं। इस आगमें देवतानोंके जो हपल झाए हैं, वे इस प्रकार टैं-. कुछ विद्वान ऋग्वेदका सुबोध भाष्य अग्ने ऋग्वेदसें क्षप्ति ज्ञानका प्रतिनिधित्व करता है। ज्ञानकी मुख्यता होनेके कारण ऋग्वेदसें केवल शआाठवें और नौवें संडलको छोडकर बाकी सभी मंडलोंकी शुरुभात भम्निसे ही की गईं है। उदाहरणाध--- अप्निमीछे पुरोदितं ( प्रथम संडर ) त्वमग्ने युमिरुत्वमाशुशुक्षणिः (द्वितीय संदछ ) सोमस्य मा तब वक्ष्यमे. ( दृतीय मंढलछ ) त्वमझ्े सद॒मित्‌ समत्यथो. ( घतुधे मंडछू ) अवोध्यक्निः समिधा जनानां. ( पंचम सेडरू ) त्वं छा्ने प्रथमो मनोता ( पष्ठ मंडक ) अश्नि नरो दीधितिभिः ( स्रक्तम संडल ) भप्मिर्माचना रुशता ( दशम मंडल ) इसप्रकार उपयुक्त सभी मंडढॉंका प्रारंभ कअपभिड़ी प्रार्थनाले हुआ है। अ्षम्रिके सूक्तोंके बाद इन्द्रके यूक्त हैं । इन्द्र कमंशक्तिका प्रतिनिधि हे। संभवत: सूक्तोंकी इस व्यवस्थामें ऋषियोंडी यद् मनीषा रही हो कि कर्मशक्तिका जाधार ज्ञानशक्ति हो | कर्म ज्ञानस्ते ही प्रेरित हो । क्योंकि ज्ञानसे प्रेरित कम ही शिवका उत्पादक द्ोता है । केवल कम था ज्ञानद्वीन कर्म उद्धतताका जनक होकर समाज या राष्ट्रमें अराजकता या अव्यवस्थाका कारण बनता है। इसलिए इन्द्रशक्तिको क्षम्नशक्तिसे नियंत्रित फरनेके लिए ही ऋग्वेदमें अम्निसूक्तोंको प्राथमिकता दी गई है। अगिके शुण ईन संडछोंसें झषम्मिके भ्नेक गुण बताये गए हैं. जेसे--- २ ज्॒णां नृपति:--- यद्द श्रम्मि सभी मनुष्योंका स्वामी | समाज या राष्ट्रमें सच्चा राजा तो शनि णर्थात्‌ ज्ञानी त्राह्मण ही द्वोता है । क्षत्रिय राजा तो ब्राह्मण-मं त्रीकी सलाइसे राज्यशासन करनेवाल्ा होता है। राज्यशासककी अपेक्षा राज्यनिर्माताका स्थान मुख्य द्ोता है । इसलिए राष्ट्रमं शासककी अपेक्षा ज्ञानीका स्थान श्रेष्ठ द्वोता डे और वही सच्चा राजा होता है । ह २ अस्ने ! पोज तब-- हे क्षक्ते ) पविन्नता करनेका काम तेरा है। राष्ट्रमें सर्वत्र ज्ञानऋा प्रचार दो, सभी ज्ञानी हों, अज्ञानका ना्मोनिशान न हो, इस कामकी जिम्मेदारी राष्ट्रके ज्ञानियों वर है| वह लपने उपदेशों तथा प्रवचनोंसे प्रजा- शोंकी बुद्धिको पविश्न बनाये। उन्हें भच्छे मामेमें प्रेरित करके




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