कान्यकुब्जप्रकाशिका | Kanyakubjaprakashika

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Kanyakubjaprakashika by श्री मुरारि देव - Shri Murari Dev

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[४४७०-६७ . २१ ) के खिचघान से यज्ञ को करसके लड़ ऋषशी चर जोडी शुक्ल यजसे यजक्षलित्रि करें जह प्रकलाउवय और ऊ पे से करे खुद कृष्लाध्यये कहाता है ये यज के दो सेंद्‌ दोने से दो अक्ार के अच्चयें हैं ॥ २७ ४ याज्ञिकाइयसथी याज्ञ-स्स्नातक/क्रत्कोमखी । खयाजोी पोौलिकश्च स्मात्तेपाण्डे यमिश्वका: ॥२८॥ साध्यन्दिनी यःऋातोयः कठकःशाःकलीयक: सोद्गलीयःकौथ॒मोयो मोमिलीयसोहिरण्यकः ॥२«॥। इत्योदिवहवोसेदा-श्शाखासतच्रसमाण्वयात्‌ । जात्ताजिज्ञासुभिरिति चरणव्यूहईद्यताम्‌ शहइण। | शाखा और कहरप सुत्रों के मिल लिचानों से यजक्ष करने खाले अर कहरकों के यार फिल, ऊअपवखसची, याक्ष, स्वातक, क्रत॒क, सरदी ससवयाजी, श्रीतिक, स्साक्त , मिश्रक, साच्यन्दिनोय, कासोय, 'कठक, शाकलीयक, सौद्धलीय, कौथमीय, गोौलिलीय, छिरणपक जा दिरिययक्रेशीय, इत्यादि जहुत उपाधि हुई हें जिनका दया- रूपोश जिक्ासु लोगों को चरणा व्यद -ग्रल्थ .में देखना चाहिये ॥ रुप: थे रेल ॥ ३० #॥ ४! -अनन्‍न्योपाख्यातयस्तेषों विद्यावहंगणापश्रयात । 'समुदुभूत्ताद्वि जोग्यू चु विख्य'्तास्सल्तिभुत्तले ४३९ विद्या आर अनेक गुझों के कारण अाहनरकों को-अलन्‍यभी - अनेक उपारूयासियां डुइ हैं जो भमयडल व्ले मिल २.- प्रान्तों में प्रचलित हैं सब उ॒ुप्राथियों को सब नहों जानते ॥ ३९ ॥ : तदभेदाश्वप्रकथ्यन्ते संध्वेपादेवक्केचन ।. , विद्यारत्नस्तत्वनिधि-बैंद्ान्तीताकिकरुतेथां ॥३२॥ सर्कंपज्चाननस्तर्को तकोलल्भारए व च-1




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