पद्यनंदीपञ्चविंशतिका | Itishripadhyanandipanchavishatika

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Book Image : पद्यनंदीपञ्चविंशतिका - Itishripadhyanandipanchavishatika

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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विनग्न प्रार्थना प्रिय जिनवाणी भक्त संसार चक्र श्रतीध्र वेग से चल रद्द है अ्प्रिमित इस भूम॑डल पर यद्यपि सर्वश्राणी श्रपनी श्रमिलाषाओं की पूनि के लिये श्रद्र्निशिसतव प्रयत्वश्ील रहते हैं तद॒ुपि उन्हे सच्ची सुख भौर शान्ति नहीं मिलती है चत्तमान समय में भी सभी मतमतान्तर वाढी भोले सरल प्राणियों को अपने चागूजाल से फंसा कर सम्मार्ग से विम्ुख कर रहे हैं ऐसे विकराल श्रशान्ति समय समय में यदि सानव सुख और शान्ति की खोज करे तो केसे ? कारण स्पष्ठ है सब जीव विपय कषाय रूपी पिशाच से असित हैं हा यदि यह भव्य श्राणी कुछ समय स्वाध्याथ में दे तो उसे अचश्य ही शान्ति और शान्ति का मार्ग सूक सकता हैं। यही सममकर ओवाचार्यों ने तो स्थाध्याय को भी तप कहा है जिस प्रकार तप में सर्व योगो को निरोध होना श्रावश्यक ह उसी प्रकार से स्वाध्याय में भी स्वाध्यायी जिस समय सम्यररीति से स्वाध्याय में लीन हो जाता है उस समय जो आत्मनुभाव से सख्वानंद की लहर भ्रात्मा में उठती है ! उसे वही जीव जानता है या सर्वज्ञ देव अस्तु यही सममकर प्रस्तुत अन्थ सजिल्द आप जिनवाणी भक्तों के समक् श्री दि० जैंन १०८ पूज्य मछि सागर अन्य माला की से स्वाध्याय प्चाराथ आजन्म स्वाध्याय प्रेमियों को भेट में दिया जा रहा है इसके सम्पादन की योग्यता झुरू भ्रत्पज्ञ मे नहीं थी परन्तु श्री जिन देव भ्रौर परमगुरू की श्रसीस कृपा से यह श्राप के सम्मुख उपस्थित कर रहा हूँ प्रमाद जन्य्र त्रुटियों को सूचित करें । गे विह्वुज्नन सेधक--- गुलाब चन्द्र जैन न्याय तीर्थ, जेन मंदिर सद॒र मेरठ ।




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