काव्य के रूप | Kavya Ke Rup
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
23 MB
कुल पष्ठ :
270
श्रेणी :
हमें इस पुस्तक की श्रेणी ज्ञात नहीं है |आप कमेन्ट में श्रेणी सुझा सकते हैं |
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)काव्य की परिभाषा श्रोर विभाग १७
इससे मिलती जुलती है | उन्होंने रमए4 अर्थ का ग्रतिपादन करने वाला शब्द काव्य
मानकर इस परिभाषा को अधिक व्यापक बना दिया है---
“रमणीयार्थ: प्रतिपादकः शब्दः कांव्यस् ।”
“रसंगंगाधर (काव्यमाला-सीरीज़ पृष्ठ ४)
इसमें रस और अलड्भार टोनों के ही चमत्कार आ जाते हैं किन्तु रमणीय्रता
में हृटय के आनन्द की ओर अ्रधिक संकेत हैं---
पाइचात्य आचार्य--पाश्चात्य आचारयों ने ज्ञों काव्य की परिमाषा दी हे वह
काव्य के चार तलों (माउतत्थ, वल्पनातत्व, बुद्धितत्व और शैल्लीतत्व) पर ही आ्ाध्ति है ।
किसी ने एफ तम्ब को ग्रधानता दी है तो क्लिसी ने दूसरे को और किन्हीं-किम्हीं ने
समम्बय-बुद्धि से काम लिया है | शैक्सपियर ने कल्पना को प्रधानता दी है। वड् सव्थ
ने भाव वो प्रधानता देते हुए कद्दा है कि काव्य शान्ति के समय में स्मरण! किये हुए
अबल् मनोवेशों का स्वच्डनद प्रगढ़ है | कॉलरिब ने अभिव्यक्ति को प्रधानता देते हुए
लिखा है कि कविता उत्तमीत्तम शब्दों का उत्तमोत्तम क्रम-विधान है | मैथ्यू आनलड
ने कविता के विषय की महत्तः देते हुए कहा हे कि कविता जीवन की आलोचना है।
डॉ० जॉनमन की परिभाषा समन्वब्रात्मक है उनका कथन हे कि कक्ति सत्य और
प्रसन्नता के सम्स्श्रिण को कला है जिसमें बुद्धि की सहायता के लिए कल्पना का
प्रयोग जिया जाता है |
श्राचार्य शुक्ल जी--आचार्य रामचन्द्र शुक्ल सत्य को अवहेलना न करते हुए
रागात्मक तत्व को मुख्यता दे हैं| उनका मत इस प्रकार का है--
'जस ग्रकार आत्मा को मुक्कावस्था ज्ञानडशा कहलाती है, उसी प्रकार
हृदय की यह मुक्तावस्था रस-दशा कहलाता है | हृदय की इसी मुक्ति की साधना
के शिए मनुध्य को काणा जो शब्:गीधान ऋरती आई है, उसे कशिता कहते हैं ।?
“5चिन्तामरिं। (भाग १--पृष्ठ १४१)
कब्रिता के लिए मभी तत्व आवश्यक हैं | उसके लिए. अनुभूति और श्रभिव्यक्ति
का प्राय: समान महच्च है, ;फर भी अभिव्यक्ति का महत्व अनुभूति पर निर्भर रहता है ।
अनुभूति के बिना कांवता निस्सार और अभिव्यक्ति के बिना
सनन््जय और सार वह आ+ पंणशहोन हो जाती है । अनुभूति का आधार अन्तर
और बाह्य जगत् है | कविता श्रेय को प्रेय रूप देती है | वह
केवल स्व्रान्त:सुखाय ही नहीं होती १रन् उसमें पाठक और आलोचक भी अपेक्षित रहते
कल “जलन
१. इस विषय की विशेष जानकारी के लिए सिद्धान्त और श्रध्ययत (प्रथम
भाग) का प्रथम श्रध्याय और काव्य को पॉरभाषा शीर्षक दूसरा अध्याय पढ़िये ।
User Reviews
No Reviews | Add Yours...