अपनी जबान | Apani Zaban
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
1 MB
कुल पष्ठ :
172
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)आबिद आलमी
गजल
घरंदे नज़रे आतिश और जएत्मी जिस्मो जाँ कब तक
बनाओगे इन्हें अछृबार की यूं सु्क्षियां कब तक
यूं ही तरसेंगी गरशिदों को सूनी बस्तियां कब तक
यूं ही देखेंगी उनकी राह गूंगी खिड़कियां कब तक
नहीं समझेगा ये आफ्िर। लुटेरे की जदां कब तक
हमारे घर को लुटवाता रहेगा पासवां कब तक
रहेंगे लफ्ज़ मज़लूमों के आकर बेजु्बां कब तक
रहेंगी बंद गोदा्ों में उनकी अर्ज़िया कब त्तक
रहीने कृत्लोगारत यूं मेरा हिन्द्रोस्तां कब तक
लुटेंगी अपनों के हाथों ही इसकी दिल्लियां कब तक
कहो सब चीछू कर हम पर बला का कृहर दूटा है
कि यूं आपत्त में ये सहमी हुई मरगेशियां कब तक
यूं ही पड़ती रहेगी बर्फ ये कब शक पस्ते मौसम
यूँ ही मरती रहेंगी मन्हीं नन्हीं पत्तियां कब तक
कहीं से भी घुंआ उठता है जब, घर याद आता है
यूं ही सुलगेंगी मेरी बेसरो-सामानियां कब तक
गिए देता है हमको ऊंची मंजिल पर पहुंचते ही
हम उप्तके वास््ते आज़िर बर्नेगे सीढ़ियां कब त्तक
हमारे दम से है सब शानो शौकत जिनकी ए आबिद
उन्हीं के सामने फैलांएंगे हम झोलियां कब तक
अपनी ज़बान हर
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