सांवत्सरिक चातुर्मासिक व पाक्षिक प्रतिक्रमण विधि | Sanvatsarik Chaturmasik Va Pakshik Pratikraman Vidhi

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Sanvatsarik Chaturmasik Va Pakshik Pratikraman Vidhi by विचक्षण श्री - Vichkshn Shri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रकाशक . श्री पुष्य सुवर्ण ज्ञान पीठ, विचक्षण भवन, कुन्दोगरों के भेरोजी का रास्ता, जीहरी बाजार जयपुर (राज.) पुस्तक मिलने का पता--- प्रकाशक : श्री पुण्य सुवर्ण ज्ञान पीठ, विचक्षण भवन, कुन्दीगरो के भेरोजी का रास्ता, जीहरी टाजार जयपुर (राज ) 7] श्री जिनदत्तसूरि मंडल दादावाडी, विनयनगर अजमेर ३०५०० १ प्रथल आवृत्ति ३००० छूल्य * छ रुपये अगस्त, १९८१ सुद्रक : प्रतापसिंह लृरिगया जाँव प्रिंटिंग प्रेस, ब्रह्मपुरी, अजमेर । अर श्री 7 श्री बच बच ने विचक्षण बचनामृत जब तक नहीं गलता, तथ तक 'मगल प्रारम्भ नही होता | जिसका मोजन' वाह्य रूपसे नीरस होता है, उसका अन्तर प्रीप्टिक, सरस और स्वास्थ्य- वर्क होता है, आत्मकल्याणी होता है । जो दुर्मत” की ओर ले जाये चही अपना 'दश्मन' है, जो उससे बनावे' और सही दिशा निर्दे दे, वही अपना मित्र है । देश जहाँ मंगल की ओोर बढ़ने हेतु परिस्थिति' न बदले वहाँ हता- पूर्वक 'प्रकृति' वबदलनी चाहिये- इसके लिये मन पर अनुशासन स्थापित करना होगा । अन्तर का अलगाब आनन्द का हेतु, मंगल का कारण, आत्म सनन्‍्तोष का सेतु बनता है 1 जीवन में कटु णो को 'सहना' सीखो 'कहना' नही । - प्रतिकूलता एवं संकटों का समता व झात्मवल से सामना करने से व्यक्ति महान बनता है । एक समाधिमरण अनेक असमा- घिमरण को मिटाता है।




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