सांवत्सरिक चातुर्मासिक व पाक्षिक प्रतिक्रमण विधि | Sanvatsarik Chaturmasik Va Pakshik Pratikraman Vidhi
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
8 MB
कुल पष्ठ :
316
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)प्रकाशक .
श्री पुष्य सुवर्ण ज्ञान पीठ,
विचक्षण भवन,
कुन्दोगरों के भेरोजी का रास्ता,
जीहरी बाजार
जयपुर (राज.)
पुस्तक मिलने का पता---
प्रकाशक :
श्री पुण्य सुवर्ण ज्ञान पीठ,
विचक्षण भवन,
कुन्दीगरो के भेरोजी का रास्ता,
जीहरी टाजार
जयपुर (राज )
7]
श्री जिनदत्तसूरि मंडल
दादावाडी, विनयनगर
अजमेर ३०५०० १
प्रथल आवृत्ति
३०००
छूल्य * छ रुपये
अगस्त, १९८१
सुद्रक :
प्रतापसिंह लृरिगया
जाँव प्रिंटिंग प्रेस,
ब्रह्मपुरी, अजमेर ।
अर
श्री
7
श्री
बच
बच
ने
विचक्षण बचनामृत
जब तक नहीं गलता, तथ
तक 'मगल प्रारम्भ नही होता |
जिसका मोजन' वाह्य रूपसे
नीरस होता है, उसका अन्तर
प्रीप्टिक, सरस और स्वास्थ्य-
वर्क होता है, आत्मकल्याणी
होता है ।
जो दुर्मत” की ओर ले जाये
चही अपना 'दश्मन' है, जो उससे
बनावे' और सही दिशा निर्दे
दे, वही अपना मित्र है ।
देश
जहाँ मंगल की ओोर बढ़ने हेतु
परिस्थिति' न बदले वहाँ हता-
पूर्वक 'प्रकृति' वबदलनी चाहिये-
इसके लिये मन पर अनुशासन
स्थापित करना होगा ।
अन्तर का अलगाब आनन्द का
हेतु, मंगल का कारण, आत्म
सनन््तोष का सेतु बनता है 1
जीवन में कटु णो को 'सहना'
सीखो 'कहना' नही ।
- प्रतिकूलता एवं संकटों का समता
व झात्मवल से सामना करने से
व्यक्ति महान बनता है ।
एक समाधिमरण अनेक असमा-
घिमरण को मिटाता है।
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